इधर गैरों की बस्ती कौन रुकना चाहता साहब
खुदा मिलता तो करता सिर्फ इतना याचना साहब//
कभी तो आपका भी सत्य से हो सामना साहब//
बड़ी मुश्किल है अपनों को यहां पर खोजना साहब//
दिखाना है मुझे दुनिया को सच्चा आईना साहब//
भरोसा जो करेगा बंद आंखों से किसी पर भी,
उसे धोखा मिलेगा एक दिन तुम देखना साहब//
जहाँ मतलब नहीं होती, वहाँ रिश्ता नहीं होता,
अगर यह झूठ निकले बात, मुझको टोकना साहब//
दिखावे के लिए आंसू बहाना और अब कितना,
सियासतदांँ, सियासत बंद कर दें, बोलना साहब//
मिले सम्मान से मुझको तो जूठन भी लगे अमरित,
निवाला, जान कर कुत्ता, मुझे मत फेंकना साहब//
बड़ी मतलबपरस्ती है, कोई अपना नहीं दिखता,
इधर गैरों की बस्ती कौन रुकना चाहता साहब//
फिजाओं में जहर को घोल देना काम है इनका,
अजी नेता कहाँ रखता कभी सद्भावना साहब//
यहाँ मौसम चुनावी है सभी नफरत परोसेंगे,
न करता ‘सूर्य’ अब इनसे अमन की कल्पना साहब//
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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