काफिरे नहीं उसकी
खिड़कियाँ खुल चुकी
घर के, फाटक के भी
इतिहास पलटा बीती काल के
कबीर देखा, तुलसी भी
यथार्थ के पीछे छूटे तस्वीर
इति रचा, स्वं के भी इतिहास
बढ़, चल स्वेद भी था सशरीर
अब, दिव्य दिखता सबसे अलग
तब, वो भी पर्दे के पीछे सदा
क्या हो चला ! पैसे भी नहीं
लम्हे भी दो-चार देखे कैसे
दिखावा, दिखावा, दिखावा…..
फैला यहाँ किसका साम्राज्य !
दीपक जला, किन्तु यह दोहन
किसलिए लिबास भी
उतार रहे इसकी वो दनुज
यह विकास भी फीका – फीका
आगे दिखावा चमक-दमक
पीछे यह कँटीली संकट जाल
लौटी पर, मर्मत्व नहीं
डर के सहमकर दासत्व अपनी
मुँह भी कैसे खोल सकते !
इज्जत आबरू बच गयी
यहीं काफी, काफिरे नहीं उसकी
हीन मृत्यु के, मूर्ख बन चले पण्डित
ज्ञानी का है शून्य कंकाल
कितना करें और इसे कंकाल
देखा, वक्त भी बदलते
उसे ही जिसे लूट लो या लुटा दो
यहाँ ईश्वर एक नहींं, हर – हर घर विधाता
न्याय – अन्याय भी स्वयं दे कर ख़ुद के
हत्या, दुर्दिन में चीरहरण
इसे ही सर्वकर्म मानते वो
एक दिन बैठ पाप धोने
हवन, पूजा, अर्चना करते
पुरोहित भी बैठ पेट को भरते
आस्था, श्रद्धा बस दिखावा
बस सिर्फ पेट ही पेट पला
मधुपान करते महफिल के भी
घी के दीए के दीप जलाते
और
सर्वस लुटाते, वो भी अपना
हुस्न इश्क़ झूठी प्रेम से ललचाते
पता नहीं क्यों !?
दुनिया उस और ही क्यों जाते…..