इतिहास
इतिहास
भाग – 02
महापंडित ठाकुर टीकाराम
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सन 1745 में दीघर्ष संदहपुर मूल के शांडिल्य गोत्रीय श्रोत्रिय ब्राह्मण ठाकुर टीकाराम जी को विधिवत वैद्यनाथ मंदिर का मुख्य पुरोहित बना दिया गया।
उधर, मिथिला (तिरहुत) पड़ोसी राजाओं से लड़ाइयों में उलझा था। न्याय और दर्शन के लिए ख्यात यह क्षेत्र अब अशांत हो गया था। किन्तु मिथिलाधीश नरेंद्र के शौर्य की पताका भौआरा की वीथियों पर लहरा रही थी। खण्डवला वंश के खण्ड (तलवार का एक प्रकार) पर मिथिला के जनों का बहुत विश्वास था। यह मुग़ल काल था और मुग़लों के आधिपत्य को अफ़ग़ानों से चुनौती मिल रही थी।
ठाकुर टीकाराम जी को आरंभ में वैद्यनाथ मंदिर में बहुत विस्मय का सामना करना पड़ा कि बाबा बैजू के दरबार में प्रथम पूज्य देव गणेश तो स्थापित ही नहीं हैं। बिना इनके किसी देवी-देवता की पूजा कैसे संभव है? इसी समय इन्होंने महाराजा नरेंद्र से वित्तीय सहायता प्राप्त कर मंदिर निर्माण आरंभ कराया। विस्मय का अन्य कारण था कि आपस में ही गद्दी के लिए संघर्ष करना अपने धर्म को व्यर्थ करने के बराबर है। इतनी ऊर्जा अगर लोक कल्याण हेतु व्यय करें तो सामाजिक उन्नति का संवाहक बना जा सकता है।
कुछ समय बाद मंदिर का निर्माण कार्य अपने पूर्ववर्ती मठ प्रधान जय नारायण ओझा को सौंपकर वे मिथिला चले गए। इस बीच जय नारायण ने अपने भतीजे यदुनंदन को यह पद सौंप दिया।
चूंकि जय नारायण के ज्येष्ठ पुत्र नारायण दत्त इस पद पर आसीन हो सकते थे किन्तु वे नाबालिग थे, अतः अयोग्य थे। इसलिए आनन-फानन में भतीजे की नियुक्ति कर दी गई।
महाराज दरभंगा के कोप से बचने हेतु इस नियुक्ति को प्रचारित नहीं किया गया किन्तु गिद्धौर महाराज के कुछ अभिलेखीय साक्ष्यों में यदुनंदन ओझा का नाम मिलता है जिसके आधार पर इतिहासविज्ञों ने उन्हें ‘कार्यकारी’ होने का संदेह व्यक्त किया है।
मिथिला के सोदरपुर ग्राम निवासी टीकाराम वापस भौआरा के राजभवन चले गए और कुछ-कुछ अंतराल पर मंदिर निर्माण हेतु प्राप्त वित्तीय सहायता लेकर आते-जाते रहे।
सन 1753 में महाराजा नरेंद्र ने कंदर्पी घाट की लड़ाई लड़ी। इस समय पंडित टीकाराम ‘श्रीगणेश प्रशस्ति’ रच चुके थे। वे एक अन्य शास्त्र ‘श्रीवैद्यनाथ पूजा-पद्धति’ की रचना कर रहे थे।
कंदर्पी घाट की लड़ाई से इनका मन बहुत आहत हुआ। मन वैराग्य को आकर्षित हुआ। पिता महामहोपाध्याय प्राणनाथ भी हिंसा से विरक्त हो अज्ञात यात्रा पर महाराज की अनुमति ले निकल पड़े। चर्चा मिलती है कि वे काशी चले गए। उनके द्वारा रचित कई ग्रंथों में एक ‘चक्रव्यूह’ की पांडुलिपि नागरी प्रचारिणी के कोष में सुरक्षित है।
शास्त्रों में रमे कोमल मन के स्वामी और ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्वान श्री टीकाराम वापस भगवान शिव की शरण में वैद्यनाथ धाम चले आए।
यहां उन्होंने पाया कि पूर्व मठ-उच्चैर्वे (मठप्रधान) ने जिसे कार्यभार दिया उसने अपने बेटे देवकीनंदन को यह पद सौंप दिया। देवकीनंदन स्वभाव से बहुत उग्र थे। अपने चचेरे भाई नारायण दत्त पर उन्होंने जैसे अन्याय किये उसकी चर्चा संस्कृत के महान पंडित व भगवती काली के विलक्षण साधक कमलादत्त (द्वारी) की डायरी में मिलती है। ये वही कमलादत्त हैं जिन्होंने वैद्यनाथ मंदिर के सिंहद्वार पर उक्त शिलालेख की रचना बनैली नरेश की प्रशस्ति में किये।
साभार-उदय शंकर
#वैद्यनाथ_मंदिर_कथा 02
(क्रमशः)
Oil Painting by William Hodges in 1787
Courtesy : British Library