इतिहास भाग- 3
भाग 03
महापंडित मैथिल ठाकुर टीकाराम
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टीकाराम जी ने वैद्यनाथ पहुंचकर देखा कि बहुत सारी अनियमितताएं व्याप्त हो गई हैं। मठ की कुछ अचल संपत्तियों को बेच दिया गया है। मठ की अधिकतम भूमि पर खेती नहीं हो रही है। संबद्ध वरिष्ठ-जन आपसी विवाद में उलझकर आगंतुक तीर्थ यात्रियों के संकट का कारक बने हुए हैं।
घटवाली स्टेट प्रभुत्व वाले इस ‘परगना देवघर’ में तब 15 बड़े ग्राम थे। रोहणी (जहां 1857 का व्यापक विद्रोह हुआ), साल्टर (सातर), सिमराह (सिमरा), तिलजुरी, पुनासी, सरैया, बेलिया, तुरी, बोनेती (बनहेती), डुमरा, गमरडीह, कुकरा, सरदाहा, तारावैद, जरूलिया (जरुआडीह या जरलाही) नाम के ये गांव थे। इसके अतिरिक्त कुछ गांव वैद्यनाथ मंदिर के नियंत्रण वाले थे जिन्हें ‘खालसा’ ग्राम कहा गया है। इनमें कुछ खेती योग्य तो कुछ पर्पट थे जिनमें खेती नहीं होती थी। उपरोक्त घटवाली ग्रामों में भी बाबा वैद्यनाथ को दान में मिली भूमि थी जिसकी उपज से मठ की परंपराओं का निर्वहन हो रहा था तथा यहां आए तीर्थयात्रियों के भोजन का प्रबंध ‘भोग’ रूप में होता था। इसके अतिरिक्त कुछ दातव्य ग्राम (चैरिटी विलेज) भी थे जिन्हें शिवोत्तर/देवोत्तर का दर्जा प्राप्त था। यह परंपरा पुरानी थी।
उपरोक्त देवोत्तर ग्रामों के लोग वैद्यनाथ मंदिर के मठप्रधान पर जीवन-यापन हेतु निर्भर थे।
घनघोर जंगल के मध्य बसी इस भूमि पर बाबा वैद्यनाथ के अलावे इस मठ से जुड़े लोग रहते थे। इनमें नाथ सम्प्रदाय के योगी और कुछ बंगाली ब्राह्मण तथा कायस्थ थे। नाथ योगियों के पास कुछ कृषि योग्य भूमि थी। मंदिर की आय से भी उन्हें कुछ मिलता था। इन्हें सर्वाधिक सहायता जह्नुगिरी (वर्तमान सुल्तानगंज) के स्थानीय अखाड़े से मिलती थी जो नाथपंथ का इस क्षेत्र का यशस्वी पीठ के तौर पर मान्य था। वैद्यनाथ मठ के पश्चिमी द्वार के समीप इनका रहवास था। इसके अलावे भी ये कई अन्य जगह छोटे-छोटे कुनबों में फैले थे। ये सभी गोरक्षपीठ से जुड़े थे।
तब इस इलाके में आदिवासियों का बाहुल्य नहीं था। यत्र-तत्र पहाड़ियों का नियंत्रण था। पहाड़ों और वनों में बाघ, चीता, गैंडा, हाथी, भालू जैसे जानवर बहुतायत में थे। खजूर के पेड़ बहुधा देखे जा सकते थे जिनकी जानकारी विभिन्न अभिलेखों में मिलती है। दुःशासन के वंशजों की आबादी भी इस क्षेत्र के जंगलों में रहती आ रही थी जिसकी सत्ता को छीनकर गिद्धौर के चंदेलवंशी क्षत्रियों ने अधिकार कर लिया था और उन्हें वनवासी बनने को बाध्य कर दिया था। बावजूद इन सभी परिस्थितियों के, माल पहाड़ियों तथा पाँव में फासी पहनकर खजूर और ताड़ के ऊंचे पेड़ों पर चढ़कर इसका रस संग्रह करनेवाली दुस्सासनी क्षत्रियों की यह उपजाति भी इस मठ से जुड़ी थी और समसामयिक आय उपार्जित कर लेती थी। मंदिर में ये दैनिक परंपराओं के समय ढोल और नगाड़ा बजाने का काम करते थे। नवद (शहनाई सदृश वाद्य) की परंपरा बहुत बाद में आरंभ हुई।
पुरोहितों के आपसी कलह से मंदिर की व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई थी। मंदिर की दैनिक परंपराओं से जुड़े सह- पेशागत लोग भी दुखी थे।
टीकाराम जी के यहाँ से बाहर रहने के कारण जो अव्यवस्था पैदा हुई थी उससे कोई सर्वाधिक प्रभावित हुए तो वे थे नारायण दत्त। वे देवकीनंदन के प्राण हर लेने के भय से वन में वनवासियों के साथ रहने को विवश थे।
यह सारी अव्यवस्था को देखकर मठप्रधान ठाकुर टीकाराम अत्यधिक व्यथित थे। वे मठप्रधान तो थे ही। उन्हें चुनौती देनेवाला कोई नहीं था। चूंकि ये मठ-उच्चैर्वे के पद पर आसीन थे अतएव एक नए आस्पद (सरनेम) से विभूषित किए गए थे। जिन्हें ‘ओझा’ कहने का प्रचलन था। यह आस्पद आज भी इनके वंशजों में अपभ्रंश रूप में मौजूद है। इनके वंशज अब ‘झा’ आस्पद अपने नाम के साथ लगाते हैं। किंतु, उपाध्याय और महामहोपाध्याय की पदवी कुल में अधिक रहने के कारण कुछ कुलों से व्याप्त ‘ठाकुर’ की पदवी नाम से पूर्व और ओझा आस्पद नाम के बाद लगाने की परंपरा मिथिला से ही इनके साथ थी।
इस काल में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। सन 1748 से इस क्षेत्र पर अफ़ग़ानों का हमला अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में हो रहा था। तब इस क्षेत्र पर अलीवर्दी खान का प्रभाव था। गिद्धौर का राजा भीतर ही भीतर अब्दाली को समर्थन कर रहा था। इसके पड़ोसी खड़गपुर स्टेट के संग्राम सिंह के वंशज मुसलमान हो चुके थे और मुगलों के साथ थे किंतु आंतरिक निष्ठा अफ़ग़ानों के साथ थी। इसका प्रतिफल कितना खतरनाक होगा यह संग्राम के वंशजों ने नहीं सोचा था।
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#वैद्यनाथ_मंदिर_कथा 03
क्रमशः
छवि : सन 1771 के रिकॉर्ड का अंश, जो पिछले कई दर्शकों से पूर्ववत था।
साभार- उदय शंकर