इतिहास झारखंड बिहार, भाग 05 महापंडित मैथिल ठाकुर टीकाराम
*****
मठ उच्चैर्वे टीकाराम जी का समय भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से बहुत उथल-पुथल वाला रहा।
वैद्यनाथ मठ के पोषक गिद्धौर नरेश का मुगलों और अफ़ग़ानों की कोशिश से निकटवर्ती खड़गपुर स्टेट से दुश्मनी परवान चढ़ गई थी। अंततोगत्वा मीर कासिम के पतन के बाद खड़गपुर स्टेट अफ़गानों के नियंत्रण में आ गया। अफगान असीर खां का प्रधान हैदर खां बन गया। यह बड़ा अन्यायी था।
कंदर्पी घाट की लड़ाई के बाद मिथिला की स्थिति भी अधिक समय तक बहुत अच्छा रहने का संकेत नहीं मिल रहा था। तब अफ़गानों की चढ़ाई बारंबार जारी थी। रघुजी भोंसले के नेतृत्व में मराठों के आक्रमण से यह क्षेत्र अस्त-व्यस्त हो गया था।
इसी दौर में बंगाल पर गाजियों का आतंक चरम पर था। आतंक से ग्राम के ग्राम धर्म परिवर्तित हो रहे थे।
मराठों को यह खबर मिल रही थी कि अन्याय कहाँ-कहाँ हो रहा है। वे उसी इलाकों से लाव-लश्कर लेकर, लूटपाट मचाते हुए गुजरते। सन 1741 से 1751 तक 6 बार मराठों ने इस क्षेत्र के हिस्सों से राह बदलकर गुजरते हुए मुगलों और अफ़ग़ानों का मानमर्दन तो किया ही, लाखों हिंदुओं को धर्म परिवर्तित होने से बचा लिया। यह वो दौर था जब हिन्दू राजा भी भयतंकित रहते थे कि पक्ष किसका लिया जाए, मराठों का या बंगाल के शासक का या आक्रमणकारी अफ़गानों का।
इसी दौर में वैद्यनाथ मठ के अन्य संरक्षक के तौर पर ज्ञात वीरभूम के राजा तिलकचंद्र मराठों के आक्रमण के डर से सबकुछ छोड़कर दूर भाग गए। इससे भी क्षेत्र में अराजकता फैल गई। मगर यह मठ शांत था।
कुछ समय बीते महाराजा नरेंद्र की असामयिक मृत्यु के उपरांत मिथिला की गद्दी पर रानी पद्मावती आ गई। मराठों के आक्रमण से राहत मिली तो 1757 में पलासी की लड़ाई हो गई। वैद्यनाथ धाम के आसपास के क्षेत्र में पुराने खेतोरी शासक राजा बिरजू के साथ भीष्म देव की भयंकर लड़ाई चल रही थी। वैद्यनाथ मंदिर से उत्तर मन्दार के समीप चंदवेगढ़ इस लड़ाई का केंद्र था। यह वर्ष 1759 था। अंत में भीष्म देव की विजय हुई। भीष्म देव ने हासिल किए क्षेत्र का नाम लक्ष्मीपुर दिया।
सन 1765 में इस क्षेत्र की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ आ गई। अब मंदिर के वित्तपोषक राजाओं पर अंग्रेजी राज के नियंत्रण की मुनादी सुनाई गई।
पहले, मिथिला नरेश महाबलि नरेंद्र जिन ठाकुर टीकाराम जी के सहायक थे, उन्हें किसी बात की कमी न थी। मिथिला के भौआरा से सहर्षा में कोशी और गंगा पार कर वे अंग-चम्पा की भूमि पर पहुंचते। वहां से भागलपुर-सूरी राजपथ से वे वैद्यनात पहुंचते। इस दूरी को तय करने हेतु उन्हें महाराजा नरेंद्र से पालकी, गज, अश्व, नाव जैसे संसाधनों की सहायता प्राप्त होती थी। इस यात्रा क्रम में वे मन्दार पर्वत होकर जाते। भगवान मधुसूदन की अनुकंपा प्राप्त करने के उपरांत ही हरि-हर की यात्रा सम्पूर्ण होती। उन्हें पता था कि यह क्षेत्र मुक्ति धाम है। इसी कारण से वे बाद में वैद्यनाथ धाम से आकर यहीं बसे।
इतने बड़े वैद्यनाथ मठ का मठप्रधान होना और धर्मपरिवर्तन के इस भयंकर दौर में धैर्यपूर्वक सबको संभालकर रखना बहुत बड़ी बात थी।
इस मठ से जुड़े लोगों को बाहर की भू-राजनैतिक हाहाकार से कोई लेना-देना नहीं था। वे आपस में गुत्थमगुत्था थे।
बहुत समझाने के बाद भी जब शरीर सौष्ठव वाले यहां के लोग समझने को तैयार नहीं हुए तब महापंडित टीकाराम का मन बहुत खिन्न हुआ। मन वैराग्य को पुनः व्याकुल हो उठा मगर पिता और महाराजा नरेंद्र को दिए वचनों से बंधे थे।
#बाबा_वैद्यनाथ_मंदिर_कथा
(क्रमशः)
चित्र : सन 1778 में सैमुएल डेविड द्वारा तैयार किया #मन्दार_पर्वत का तैलचित्र
साभार- उदय शंकर