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19 May 2021 · 3 min read

इतिहासकार और बुतपरस्ती

इतिहासकार और बुतपरस्ती

अक्सर हमने देखा है कि ज्यादातर इतिहासकार आस्तिक होते हुए भी उस स्तर के आस्तिक नही हो पाए जिस स्तर पर उनका अपना समाज उन्हें देखना चाहता है। इसी कारण इतिहासकारों पर अक्सर नास्तिक होने के आरोप लगते रहें है । नास्तिक होने का आरोप ही नही बल्कि गैर धार्मिक होने के आरोप भी वो सहते रहते है किंतु इन आरोपों से शायद ही कभी कोई इतिहासकार बिचलित हुआ हो, क्योकि उज़के लिए समाज की यह प्रतिक्रिया सामान्य व्यवहार है, और वो भी यही सोचता है कि होनी भी चाहिए, अन्यथा समाज अनाथ हो जाएगा । इसलिए एक इतिहासकार ऐसे आरोपो पर बहुत कम ही सफाई देते है और हंसते मुस्कुराते हुए इन आरोपों अपने लेखन की किसी पंक्ति में डालकर चुपचाप निकल जाते है।
वास्तव में हमको इतिहासकर को एक आम व्यक्ति की निगाह से नही देखना चाहिए एक आम तो है किंतु विचारों के आधार पर वह खास है ,उसने उन सभी समाजो को देखा है उनका अनुभव किया है जिनके हिस्सा विस्व के सभी लोग होए है। उसने महसूस किया है समाज की आस्था को और उस आस्था के प्रति उनके आराध्य की प्रतिक्रिया को ,साथ ही एक इतिहासकार ही इस व्यक्ति होता है जो किसी भी समाज के आराध्य से प्रामाणिकता के साथ प्रश्न कर सकता है और उसकी उपस्थिति पर सबाल खड़े कर सकता है।
इतिहासकार देखता है कि युद्ध हुए है दो दो या ज्यादा समाज आपस मे लड़ते आ रहे हैं किंतु विजय तैयारी के आधार पर हुई है है। मनुष्य मानवीय काम करने के बाद भी अमानवीयता सहता रहा है और अमानवीय एवम निकृष्ठ काम करने के वाद भी कुछ लोगों के ऐसों आराम का जीवन जिया है।
इतिहासकार हर समाज के भगवान को निचोड़कर देखता है, साहित्यक और पुरातात्विक आधार पर कि इसकी रचना तो स्वयं समाज ने की है ,जिसमे स्वार्थ भी एक आधार रहा है, राजा का,मंत्री का पुरिहितो आदि का। जब इतिहासकार यह महसूस करता है तब वह हमेशा पाता है कि उनका भगवान मजबूरों की सहायता करने के बदले अपने देवस्थलों में आराम से उसी प्रकार बैठा है जैसे पहले बैठा था।
कभी कभी तो इतिहासकार इतिहास की क्रूर घटनाओं को समझकर स्वयं रोने लगता है किन्तु भगवान को वह हमेशा उसी के स्थान पर पाता है। जब यह सब देखता है तो उसकी आस्तिकता सरभौमिक आस्तिकता का रूप ले लेती है जिसमे धर्म या जाति से ज्यादा मानवीय सम्वेदनाएँ भरी होती है।
इसके बाबजूद भी इतिहासकार कभी भी ना तो स्वयं को नास्तिक कहता और ना ही स्वयं को अपने धर्म से अलग करता है क्योंकि उसकी आस्था भी धर्मो में और परमशक्ति में होती है किंतु वह धार्मिक एवं जातिगत आधार पर विभेधित या फिर लेन देन का सौदा करने बाली नही होती। बल्कि वह हर धर्म, हर समाज की जरूरत के सार्वभौमिक धर्म से जुड़ जाती है । जो है मानवता का धर्म और यही हर धर्म की आखिरी निचोड़ है । इसमें कर्मकांड नही, इसमे भगवान से लेन देन नही, इसमे भगवान की जरूरत केवल लोगों के स्वार्थ,ईगो,लालच आदि को नियंत्रित करने तक होती है । इसलिए इतिहासकार धर्म से सामान्य सवाल कर स्वयं को एक धर्मी नही बल्कि बहुधर्मी बना लेता है ।

Language: Hindi
Tag: लेख
559 Views
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