इतराती बलखाती अदाओं के रुख़ मोड़े गये
इतराती बलखाती अदाओं के रुख़ मोड़े गये
ले जा के तूर पर सर हवाओं के फोड़े गये
आने लगे थे ख़्वाब कुछ हाये दिल से उठकर
मानिंद गीले कपड़े के आँख से निचोड़े गये
बता कौन निभाता है खून के भी रिश्ते यहाँ
हां वो भी आख़िर टूटे जो दिल से जोड़े गये
कुछ इस तरह रहा तमाम उम्र का हिसाब मेरा
कुछ गये संजीदगी में दिल्लगी में थोड़े गये
हुआ दिल के पार कोई कोई जिगर के पार था
किस किस की जबां के तरकश से तीर छोड़े गये
मुद्दत बाद सोया है गहरी नींदों में कोई
यूँ लगता है उसके बेचे सारे घोड़े गये
जिन्हें याद ही न हुआ सबक़ मोहब्बत का यहां
वो दरबार-ए-ज़ीस्त में ‘सरु’ खाते कोड़े गये