इजहारे मोहब्बत
विधा-पूर्णिका
शीर्षक – इज़हारे महुब्बत
करती थी नफ़रत कभी,पर आज आंखों का नूर है।
जो मुझे पसंद है, आज वही मुझसे बहुत दूर है।।
हुई मुझसे ख़ता,न किया उससे मैंने प्यार का इजहार।
करता रहा इंतजार, मैंने किया,सपनों को किया चकनाचूर है।।
नफ़रत की आंधियां ऐसे चली कि, दुश्मन मान बैठी उसे।
ज़माने से छिपकर,उसने महुब्बत की भरपूर है।।
नहीं था हमारा मिलन स्वीकार,इस जहां को।
इस लिए नहीं हुआ प्रेम का अहसास मुझे ,ये मेरा कसूर है।।
नफ़रत का हुआ, जब पर्दाफाश ,रह गया अफसोस मगर।
जिंदगी है छोटी सी, मिलेंगे कभी न कभी यह जरूर है।।
दुनियां है गोल,कहता है भूगोल।
हर किसी को नहीं मिलता प्यार जीवन में ये सोचना फितूर है।।
ले रहा है ईश्वर, हमारे सब्र की परीक्षा।
इग्जाम में पास होंगे हम, तुम्हारे पाक ए महुब्बत पर गुरूर है।।
बनाया है रव ने रिश्ता,कहती हैं विभा आज।
किसी मोड़ पर आकर, मिलेंगे हम जानेमन ,ये दुनियां का दस्तूर है।।
विभा जैन (ओज्स)
इंदौर (मध्यप्रदेश)