इक दीवाना था
इक दीवाना था
वो हर गली हर डगर उसे ही ढूंढता था
हो जाये जो एक पल के लिए नज़रों से ओझल
बेचैन हो दौड़ पड़ता था
सबसे जुदा सबसे अलग वो इक दीवाना था।
पूछता था उसके बारे में सवाल सबसे
उसके न दिखने पर परेशान से बनता था
मौजूदगी में उसकी अंजानेपन का दिखावा
करता था।
सजा लिए थे जाने कितने सपने उसने
हजारों सुनहरे ख्वाब बुनता था।
आसपास उसके न किसी को वो पसन्द करता था
नज़दीक हो कोई गर उसके कुछ खफ़ा
सा लगता था।
मान लिया था उसने उसको दुनिया अपनी
देख रहा था उसमे सारी खुशियां अपनी
सिवाय उसके कुछ न जँचता था।
इक झलक पाने को हर गली सड़क से
गुजरता था
देखकर उसे इक नशा उसकी आँखों
में बिखरता था।
इक अजब दिन आया जब वो हो गई पराई
ढूंढ़ता रह गया उसकी परछाई भी
अब न वो किसी राह पर रुकता था।
खो गया सबकी नजरों से अचानक ही
न कोई कहानी न दास्तां कहता था
सबसे जुदा सबसे अलग वो इक दीवाना था।।
“कविता चौहान”