इक घरोंदा को मैंने बनाया यहाँ
ग़ज़ल (गैर मुरद्दफ़)
इक घरोंदा को मैंने बनाया यहाँ।
मैंने समझा कि मुझको मिला है ज़हाँ।
पर हवा जो बही,सब तो ढहते गए।
कुछ बचा फिर,यहाँ है न नाम-ओ-निशाँ।
देख ऐसे तो ग़ुरबत,कहीं पर न थी।
अब यही सोचता हूँ,मैं जाऊँ कहाँ।
मौत से फ़ासले तो नहीं कम हुए।
भागते-दौड़ते मैं तो पहुँचा वहाँ।
बोध रिश्ते व नाते सभी तोड़ दो।
हैं बिखरते सभी तो इसी दरमियाँ।
प्रभात कुमार दुबे(प्रबुद्ध कश्यप)