इक आस
परेशान हूं इस फरेबी शोर में
उठ नहीं पाता रोज भोर में
तड़पता बिलखता हूं यहां
कोई नहीं आता दिल के द्वार में
मन दुखी ही रहता है पूरे दिन
और रात आ जाती पूछे बिन
फिर नौकरी के वही किस्से
बस दिन कटते हैं गिन गिन
कुछ नया होने की आस लिए बैठा हूं
कुछ पल मैं भी यहां खास लिए बैठा हूं
उम्मीद इस दौर में कुछ तो सही होगा
आशा में मैं कई ख़्वाब पास लिए बैठा हूं
शिव प्रताप लोधी