इंसांं
वक्त के साथ बदल जाते हैं इंसांं ।
जाना पहचाना सा अब लगता है अजनबी इंसांं ।
जो कभी खिलता था फूलों की मानिंद अब तो मुरझाया सा लगता है टूटता इंसांं ।
जिसके आने से चली आती थी ख़िजाओं में भी बहार,
अब तो आता है बनके क़यामत क़हर ढाता है इंसांं ।
रोशनी फूटती थी जिसके बदन से ।
भटको को राह दिखाता था इंसांं ।
अब तो भटकता है खुद अंधेरों में ठोकरें खाता है इंसांं ।
मिलाता था जो दिल से दिल दिलजलों के ।
टूटते दिल को जोड़ता था इंसांं ।
अब तो जिसको कहता है दिलबर उसी के सीने में उतारता है खंजर इंसांं ।
मानता था जो औकात, ईमा़न और फर्ज़ को ।
जानता था जो सब़ाब और क़़ुफ्र के फ़र्क को ।
अब तो कुछ जानता है ना मानता है हर पल इसी कशमकश में गुज़ारता है ।
लगता है इंसानियत और हैवानियत को एक ही तराजू में तौलता फिरता है इंसांं।
फिर भी वह यह जानता है इस उमड़ती इंसानी भीड़ में चंद इंसान ऐसे भी हैं जिनसे है इंसान और इंसानियत का वजूद ।
वरना सब कुछ खाक होता है ना रहती फैली यह धरती चारों तरफ और मौजेंं लेते सागरों के हदूद ।