इंसानों की इस भीड़ में ही एक इंसान हूँ।
इंसानों की इस भीड़ में ही एक इंसान हूँ।
मिट्टी से सोना उगाता मैं एक किसान हूँ।
मेहनत के नशे में रहता धूत इस क़दर।
ज़िन्दगी के हर दुख दर्द से अनजान हूँ।
काँटें ही बिछे हैं मेरी ज़िंदगी की राहों में।
पर औरों की ज़िंदगी कर देता आसान हूँ।
ख़ुद की भूख व प्यास को दरकिनार कर।
दूसरों की भूख मिटाने को रहता परेशान हूँ।
जिस्म से पसीने लहू बन कर टपकते हैं मेरे।
सर्दी, गर्मी या हो बरसात, रहता लहूलहान हूँ।
जब भी रहती मेरी फ़सल सदीद की प्यासी।
मजबूर हो कर तकता रहता मैं आसमान हूँ।
मज़दूरी करता हूँ और हूँ मज़दूर ही कहलाता।
ग़ुरबत की ज़िंदगी है मेरी पर नही बेईमान हूँ।
लोग कहते हैं मिट्टी से पैदा करता हूँ मैं सोना।
पर सोने का दाम नही मिलने से रहता हैरान हूँ।
सताया जाता हूँ और कर्ज़ से रहता लदा हर दम।
सियासी मुद्दा बन जाता खो कर अपना सम्मान हूँ।
दूसरों की भूख मिटाने वाला कब तलक रहे भूखा?
बीवी-बच्चों को तड़पता छोड़, देता अपनी जान हूँ।