इंसानियत
एक किस्सा सुनाते हैं –
कि महफिल सजी थी इंसानों की सब थे बैठे हुए ,
और बैठक में प्रश्न भी इंसानियत पर खड़े हुए ।
की जज्बाती सवाल -जवाब कुछ इस कदर हुए ,
एकाएक सब थे कटघरे में खड़े हुए ।
पशुओं से दिल लगी हर कोई दिखाता है,
पर इस जुबान से मटन चिकन का स्वाद ना जाता है।
हथिनी हो या मुर्गी हो, दर्द सबको तड़पाता है।
जान का डर तो मेरी जान सब को सताता है।
इंसानियत तो बेहतरी से जानवर सिखाता है,
झुंड का हर जानवर प्रेम-भाव से रहता है।
पशुओं में ना कोई धर्म जाति सिखाता है
माना कि उनमें विवाद भोजन के लिए आता है
पर इंसान की भूख तो कोई मिटा ना पाता है।
एक बाप बेटे को हिंदू या मुसलमां बनाता है।
वह भाषा सिखाता है, मजहब सिखाता है।
फिर कैसे लड़कियों संग बलात्कार हो जाता है।
फिर कौन दहेज के नाम पर बहुओं को जलाता है?
इंसान तो सदैव अपना जुर्म छुपाता है।
धर्म के नाम पर दूसरों पर आरोप लगाता है।
और तो और
ये इंसान से ज्यादा धर्म जाति से प्यार जताता है।
कभी-कभी ये अधिक प्यार ही फिर आतंकवाद बन जाता है।
यह हैवानियत ओ मेरी जान कोई ना सिखाता है।
बिन सिखाएं हैवानियत तुम सीख जाते हो,
फिर क्यों इंसान इंसानियत सीख न पाता है
जबकि इश्वर ही इंसान में इंसानियत का निर्माता है।
पर इंसानियत भुलाकर ईश्वर झुठलाया जाता है।
—✍? करिश्मा चौरसिया