इंतेज़ार
मशीन होती जिंदगी को,धड़कनों का इंतजार है।
घड़ी की सुईयों पर नाचती जिंदगी को, समय का इंतजार है।
वो आज भी चूल्हे पर रोटी बनाती है,
एक बूढ़ी माँ को,बेटे के लौटने का इंतजार है।
मौसम बदला तो परिंदों ने ठिकाना बदला,
मगर उस पेड़ को,परिंदों का अब भी इंतजार है।
घर की जरूरतों ने दूरियां, बढ़ा दी,
दरवाजे पर टिकी निगाहों को,किसी के आने का इंतजार है।
जिस मिट्टी में खेले कूदे, पले बढ़े,
उस गाँव की मिट्टी को, तेरे लौटने का इंतजार है।
जिस चकाचौंध में भुला दिये सारे रिश्ते,
उन रिश्तों को आज भी तेरे इंसान होने का इंतजार हैं।
डॉ प्रिया सोनी खरे