इंतज़ार एक दस्तक की।
इंतज़ार एक दस्तक की, उस दरवाजे को थी रहती,
चौखट पर जिसकी धूल, बरसों की थी जमी हुई।
निगाहें धरती की, उस आसमान को थी निहारती,
बारिशों ने, जिसके बादलों से की थी धोखाधड़ी।
ठहरे पलों में वो मंजिल, उन रास्तों को थी तलाशती,
क़दमों ने जिसकी पगडंडियों से कर ली थी, नाराजगी।
हवाएं उन दरख्तों पर, अब भी थी खिलखिलाती,
चहकते घोंसलों से शाखें, जिनकी अब ना थी मुस्कुराती।
सूखे पत्तों पर भी, वो ओस की बूँदें थी चमकती,
सूरज की किरणों ने, जिनकी मौत से कि थी सौदेबाज़ी।
चुनरी, अब भी उस रंगरेज के हाथों को थी सहलाती,
रंगों की दुनिया ने जिससे कर ली थी बेगानगी।
आईना, अब भी उस अक्स की कहानी थी सुनाती,
जिसकी रूह ने उसे हीं पहचानने में, जता दी थी लाचारगी।
चीखें उन शब्दों की, अब भी कोरे पन्नों को थी रुलाती,
मन के मौन सतह पर, दर्द बन जिनकी हुई थी आवारगी।