आ अब लौट चले
आ अब लौट चले
बहुत देर तक गंगा तट पर
रहा प्रतीक्षा करता प्रिये
हो रहा दिवाकर अस्तांचल
सोचा आ अब लौट चले।
रक्ताभ नीर नदी की मानो
उष्ण सूर्य को शांत कर चुकी
मेरी आशा को भी क्रमशः
वह नाउम्मीद में बदल चुकी।
उस पार गोधूलि दीख रही
इस पर हृदय चीत्कार रहा
सुरमयी शाम की सुंदरता
में दिल है मेरा दग्ध हो रहा।
कितनी शाम गुजारी हमने
बनते रहे रेत के टीले
गोद मे तेरी थक सो जाता मैं
ओढ़ तुम्हारे दुपट्टे पीले।
हाथ लिए गंगाजल तुमने
जब गालों पर डाला था
तेरे कोमल अधरों ने तब
उसे पवित्र कर डाला था।
सिंदूरी किरणे जब सूरज की
स्पर्श कपोलो का करती
सकुचाती वह लाजवंत बन
रक्तिम आभा फैलाती थी।
पर अचानक से प्रिय क्यो
तेरी आहट का भी पता नही
मादक से इन नीर तटों पर
प्रिये आज उल्लास नही।
कहि अपने जनको की चाहत
ले अपने मन को मार गयी
किसी और भाग्यशाली के संग
प्रिये पाणिग्रहण को बैठ गयी।
कोइ बात नही सम्मान करो
आदेश है प्रिये सदा उनका
दरकार स्वस्थ संवाद की हो
तो इसी जगह तुम आ जाना
निर्मेष हमारा क्या है हम
जीते फकीर सा इक जीवन
पल पल इस सरकते जीवन को
कोशिश धरने की की असफल