आज़ाद गज़ल
चुभने लगे हैं अब तो गुलाब भी
जलाते हैं रातों को माहताब भी ।
नींद जब आती है तरस खा कर
सो चुके होते हैं तब ख्वाब भी ।
सोंच गर सड़ जाए सच्चाई की
खोखले लगतें तब इन्क़लाब भी।
बदल कर रख देगी वबा ज़रुर
इंसानियत की तरह इंतखाब भी ।
मेरा क्या है अजय रहूँ या न रहूँ
दुनिया रहेगी नेक और खराब भी ।
-,अजय प्रसाद