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13 Jan 2021 · 4 min read

आहत मन से!

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में एक प्राथमिक विद्यालय की सहायक अध्यापिका, की रचना”प्रधान का चुनाव लडुंगी अबकी बारी” में अंन्य कितने ही गंभीर रूप से उसका वर्णन करते हुए, प्रधान पद पर बैठकर उन सब तौर-तरीकों का अनुसरण करने का आभास देकर एक तरह से कटाक्ष किया है।
‌ हो सकता है इस पर बहन का कोई कटु निजी अनुभव रहा हो, जिसे उन्होंने अपनी काब्य रचना के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है,मेरा यह मानना है कि यदि किसी एक को नजीर बना कर संपूर्ण वर्ग को लांछित किया जाए तो यह उचित प्रतीत नहीं होता!
‌ आज समाज में हर वर्ग में क्षरण या नैतिक पतन हुआ है, जिसके लिए लोग गाहे-बगाहे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किया करते हैं, किन्तु शैक्षिक योग्यता से परिपूर्ण और अध्यापन जैसे कार्य में अपना योगदान देने वाले इस अनुभव को कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं, लेकिन उसके लिए प्रतिकार करने में चूक जाते हैं, या उसे सहज भाव से स्वीकार कर रहे हैं तो उसमें किंचित मात्र ही सही उनकी भी भागीदारी निहित होगी,तब वह एक ही वर्ग को दोषी ठहरा कर अपने कर्तव्य से विमुख कैसे हो सकती हैं!
वर्तमान में जैसे कि मैं इसारा कर चुका हूं कि यह गिरावट सभी प्रतिस्ठानों में व्याप्त हो गई है फिर भी सभी तो इसका हिस्सा नहीं होते, मैं इन्हीं बहना से यह अपेक्षा करता हूं कि उनके सहकर्मी अपने दायित्वों का निर्वहन कितनी ईमानदारी से निभाते हैं, आज सरकारी विद्यालयों में अभिभावकों का विश्वास कम हो गया है और जहां पर पूर्ण शैक्षिक योग्यता के कम के लोग पढा रहे हैं वहां पर बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजा जा रहा है,हर गांव मोहल्ले में नर्सरी स्कूल खोले जाने लगे हैं, तो उस गिरते भरोसे के लिए कोई आत्ममंथन करने की ओर भी ध्यान दिया है!जब कभी उनके विद्यालयों में कोई वरिष्ठ अधिकारी या विशिष्ट अतिथि का आगमन होता है तब उस पर किया गया व्यय कौन वहन करता है, और उसकी पूर्ति कैसे होती है, शायद कभी इस ओर विचार करने का अवसर नहीं मिल पाया होगा।
‌ प्रधान बनना और फिर उस पद पर आसीन होने के नाते उसके दायित्वों का निर्वहन करने के लिए प्रधान को कितनी मेहनत कितनी खुशामद,कितनी लड़ाईयों से होकर जूझना पड़ता है, अपने घर से शुरू हो जाती है उसकी दिनचर्या,मेल मुलाकातियों से लेकर अपने कार्यालय यदि है तो अन्यथा न्याय पंचायत क्षेत्र में, विकास खंड कार्यालय, जिला स्तरीय कार्यालय जहां की समस्याओं का प्रयोजन होता है जाना पड़ता है, उसके लिए कोई यात्रा भत्ता अनुमन्य नहीं है, कोई बेतन नहीं है, अपितु पिछले कुछ सालों से मानदेय दिया जाने लगा है, मैं व मेरे पूर्व कालिक प्रधानों ने तो बिना मानदेय के काम किया है, और उस ज़माने में पंचायत के पास धनाभाव ही होता था, श्रमदान करके परिसंपत्तियों का निर्माण कराया जाता था, आने वाले अधिकारी, कर्मचारियों को घर पर ही विश्राम कराया जाता था, दैनिक आवा गमन की व्यवस्था नहीं होती थी, उस स्थिति में स्वयं यदि कहीं जाता था तो निजी खर्च पर,आना जाना और रहना खाना,सब कुछ स्वयं ही झेलना पड़ता था, और मेहमान के रूप में चाहे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हो वरिष्ठ अधिकारी, सबको अपने घर पर ही व्यवस्था करनी पड़ती थी, पर कभी इसको लेकर पछतावा नहीं किया कि अमुक कर्मचारी आया और मेरी पंचायत का कोई काम सुधार कर नहीं गया,सहज भाव से स्वीकार किया जाता रहा है,ना कभी उस कर्मचारी को इसका भान होने दिया, अपनी क्षमताओं के अनुरूप उसका सत्कार किया गया!
तब प्रधान बनने की होड़ भी नहीं रहती थी, गांव के लोग ऐसे व्यक्तियों को सर्वसम्मति से चयन करके उसे अपने सुख-दुख से बांध लेते थे, और वह उसके प्रति समर्पित भावनाओं को महसूस करते हुए सेवा भाव से जुट जाते थे, और सरकारी इमदाद, अनुदान, आज के समय में बजट का प्रावधान नहीं था,श्रमदान को प्रोत्साहित करके सम्मान स्वरुप इनाम दिया जाता था, वह भी खर्च पंचायत पर करने को,नाकि अपने जेब खर्च के लिए, इतना सरल नहीं है प्रधान पद के दायित्व का निर्वहन, आज तो प्रधान के साथ सहयोग के लिए क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत हैं ही,तब विधायकों को भी निधि आवंटन के लिए व्यवस्था नहीं थी, जो अब हासिल है, इसलिए ही इन पदों के लिए आकर्षण बढ़ा है और बेरोजगारी ने इन पदों पर भाग्य आजमाने में और प्रेरित किया है, जिसके कारण थोड़ी-बहुत गिरावट इन पदों पर बैठे हुए लोगों से हो रही होगी! लेकिन बहन को ही मुखातिब होकर में यह भी बताना चाहता हूं, आज जब कोरोना महामारी का बचाव करने का अवसर आया तो ग्राम प्रधानों को इसमें सहभागिता के लिए निर्देश किया गया वह अपने क्षेत्र में आवश्यक सामग्री में मास्क और सैनिटाइजर करके गांवों को सुरक्षित रखें, बिना धनांबटन किए, और पंचायत प्रतिनिधियों में सिर्फ प्रधान ही तब फ्रंटलाइन में दिखाई दिया,सब कुछ दांव पर लगा कर,जरा सोचिए ऐसे में किसी प्रधान की मृत्यु पर उसके घर परिवार को कोई क्षतिपूर्ति होती, जो किसी भी तरह से वेतनभोगी नहीं है, उसके आश्रृत को मृतक आश्रित कोटे से कोई प्रतिस्थापन किया जाता, जबकि अन्य सेवा में समर्पित लोगों को इसकी क्षैणी में सुरक्षा प्रदान थी,
बहुत से उदाहरण है देने को, लेकिन सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि किसी एक के कृत्य के लिए सबको लांछित किए जाने से बचना चाहिए!।

Language: Hindi
Tag: लेख
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