आसाराम बापू पर एक कविता / मुसाफ़िर बैठा
लय-लड़ी में इक भावोच्छ्वास :
राम ! राम!! आसाराम
ई आसा सदृश निराशा अबके लंगड़े लोकतंत्र में ना कुछ कम साधुवेशी राजा है
धन दौलत और शोहरत का चरम संभाले चुभला रहा फ़ोकट में मिला बताशा है
अकाल जहाँ की विकट समस्या पानी की किल्लत हाहाकार रहा
मशीनी पिचकारी से बहा मनमाना रंगीं पानी भक्त-बीच होली पर करे खेल-तमाशा है
जितने बयान दिए हैं उसके चेलों ने अबतक या जो जो खुद वह बोला है
उसकी चोर दाढ़ी तिनके वाली से निकला ना भी तो बिलकुल हाँ-सा है
अध्यात्म का उसका चोला है मत समझो वह कहीं से भोला नादां है
हजार बलात्कार किये खलकामी ने खोल राज यह एक बीते-चेले ने चेहरा उसका तराशा है
पहली बार नहीं घटाया इसने आदतन यह घट-घट स्खलित अपराधी है
इलाज-बात हो मुकम्मल अक्षतनख इस वृद्ध-भेडिये की नहीं तो लोगों के बीच हताशा है
एक राजा हमने सुना है सोलह सौ नार का दीदार वो करता था
बिठा डाला उसको भी हमने देव पांत में तर्क में बिठता नहीं जरा-सा है
सोचो कितनी अबलाओं की चीखें चिल्लाहटें आबोहवा में गूंज रही होंगी कबसे
इतने सौ की संख्या तो है घुटने टेके पस्त-स्वप्न बेबस अंगनाओं की आगे का अनुमान खुला-सा है
अपराधी तो अपराधी है राजा हो या रंक या फिर कोई साधुता-सेवी
नथ कर निरे धर्म अभ्यास में ऐसों पर क्यों अबतक हमारा विरोध मरा-सा है
कितनी ही दिल्ली-मुंबई-सी निर्भयाओं के प्रतिकार-विफल आबरू-लूट कथा अतीत में दफ़न होगी
खेले जो छुप-छुप या खुले खेल ऐसे हया-हीन स्वत्वमर्दकों को स्वीकारना भई, मना-सा है
सच झूठ में फरक तो भाई करना ही होगा जानो करना गो कि
अंग लगा के बुद्धिवादी मानवता को चलना काम जरूर बड़ा-सा है
गर मरज हो दूर भगाना औ’ मन-मस्तिष्क मजबूत बनाना दवा कडवी पीनी होगी
मान लो बात ये मीत फेसबुकियो इस ‘मुबै’ की भले ही परामर्श जरा कटुक कड़ा-सा है