आसाँ नहीं है – अंत के सच को बस यूँ ही मान लेना
आसाँ नहीं है – अंत के सच को बस यूँ ही मान लेना
इतना आसाँ नहीं है
अंत के सच को
बस यूँ ही मान लेना
एक भरम है –
एक जाल
हम ही बुनते है
साल दर साल
और ताउम्र जीते हैं
जैसे जीवन हो अनंत
पर अंत का क्या ?
और अंत के बाद क्या ?
कोई मेहमाँ
जो घर आया ग़र कभी
चंद अलफ़ाज़
पुराने ताल्लुकातों का
किस्सा कोई पुराना
जो आया निकल कभी
बैठक के एक कोने में
हर पुरखों की मानिंद
थोड़ी साफ़
थोड़ी धूल से भरी
तस्वीर मेरी भी
शायद तब मुस्कुराएगी
~ अतुल “कृष्ण”