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22 Aug 2021 · 3 min read

आसक्ति और भक्ति

22 aug 2021 sunday

डॉ अरुण कुमार शास्त्री – प्रश्न कर्ता

प्रश्न – आसक्ति और भक्ति में क्या अंतर है, क्या इस (के अंतर भाव से अनभिज्ञ ) के चलते मानुष त्रिशंकु जीवन जीता है?

आसक्ति और भक्ति में क्या अंतर है,
क्या इस अंतर के चलते मानुष त्रिशंकु जीवन जीता है?

प्रश्न के अनुसार आसक्ति और भक्ति में बहुत अंतर है। भक्ति तो जीवन सफल बनाने के लिए विभिन्न प्रकार से की जाती है। गृहस्थ जीवन में प्रेम भक्ति सबसे सरल मार्ग है ,जिससे मोक्ष तक प्राप्त कर सकते हैं ।अन्य प्रकार की भक्ति से भी एक किनारा हो सकता है। आसक्ति भी किसी वस्तु ,व्यक्ति से अथाह लगाव को कहते हैं।

सांसारिक नश्वर वस्तुओं से अधिक लगाव रखना ठीक नहीं। कई संत- सन्यासी जो अपनी धन दौलत छोड़ चुके, दोबारा उन्हीं वस्तुओं पर आसक्त नहीं हुए, तथा भक्ति का मार्ग पकड़ा।बहुत सारे संसार में ऐसे प्राणी हैं जो वस्तु के प्रति भी आसक्त होते हैं और भक्ति भी करते हैं। परंतु अपना अच्छा- बुरा समय निकल जाने पर कुछ ध्यान नहीं देते और न ही याद रखते हैं। वे केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं।ऐसे मनुष्य अधर में लटके रहते हैं वह न इधर के रहते हैं और ना ही उधर के वे त्रिशंकु जीवन जीते हैं ऐसा मेरा मानना है।

ललिता कश्यप गांव सायर जिला बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश)

[ प्रतिउत्तर ] व् व्याख्या

ये कुछ दिन पहले दिए गए एक प्रश्न उत्तर आप का प्रायोगिक स्वरूप से स्वीकार्य है – मनुष्य के जीवन में उसके प्रारब्ध अर्थात संचित कर्म रूपेन जीव की जीवन दिशा निर्धारित होती है । कर्म लेख मनुष्य के जाने अनजाने मे किए गए , मन , वचन और कर्मेन्द्रियों द्वारा , किए गए कार्यों से निर्धारित होते हैं – ये सभी प्रक्रिया भागवत गीता में प्रभु श्री कृष्ण मुख से निकले व अपने शिष्य सखा अर्जुन कुरुक्षेत्र में दिए गये ज्ञान में अंतर्निहित है । जो जो मनुष्य इस भाव की गहराई को समझ लेता है वही आसक्ति व भक्ति भाव को पूर्ण रूपेन आत्मसात कर निर्विचारिता में रहता हुआ जीवन जीता है , अन्यथा त्रिशंकु अर्थात – किम कर्तव्ययम किम ना कर्तव्ययम असमंजस में रहता 2 इस जगत से निर्वासित होता है फिर पुनर्जन्म की परिधि में तब तक आवागमन के चक्र में फंस जाता है , इस संदर्भ में सबसे बड़ा साक्ष्य श्री भीष्म पितामह का है – जो इतने ज्ञानवान होते हुए भी आखिर लख चौरासी से अपने आप को बचा न पाए साधारण मनुष्य को तो छोड़ ही दो ,

अब आपकी उस संज्ञा का उत्तर – साधु सन्यासी हो कर संसार की उपभोग वस्तुओं का त्याग कर आसक्ति नहीं जाती – सबसे गहन भाव जो आपके द्वारा चिन्हित नहीं हो पाया वो धर्म अर्थ काम और मोक्ष – ये चार पुरुषार्थ हैं – जो सम्पूर्ण जीवन में निभाने ही पड़ते हैं – जो कोई इनसे बचाव के विचार से कोई अन्य रास्ता निकाल लेता है वो तो और भी बुरी स्थिति में रहता है , हालांकि उसे ये ज्ञान रहता ही नहीं , यहाँ गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने वाला गृहस्थ – आसक्ति – भक्ति दोनों को समझ उनका त्याग व गृहण या प्रयोग करते हुए अधिक उच्च स्थान को प्राप्त होता है । साधु सन्यासी सम्पूर्ण जीवन अपने प्राणों की रक्षा के लिए हमेशा – गृहस्थ पर ही निर्भर रहता है और उसकी दी हुई उधार की जीवनोपयोगी व्यवस्था का ऋणी होकर इस जगत से निर्वासित होता है ।

आचार्य डॉ अरुण कुमार शास्त्री

Language: Hindi
Tag: लेख
850 Views
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