आशियाना
आशियाना वहीं , हम बनाते रहे।
वे खुशी से जहाॅं ,खिलखिलाते रहे।
उम्र भर साथ चलने का वादा किया,
ईंट से ईंट को हम सजाते रहे।
चाल ऐसी चली खूब खटपट हुआ,
वे जलाते रहे हम बुझाते रहे।
एक ही डाल पर बैठते थे कभी,
वाण तो व्यंग्य के अब चखाते रहे।
दाल रोटी मिली कितने खुश थे सभी।
अब वहीं दाल भी वे गलाते रहे।।
बेरहम सी हुई वे खफा तो नहीं,
हाथ ‘दीपक’ सदा हम मिलाते रहे।
खूब ठंडी लगी सर्द की रात में,
इक घरौंदा वहीं पर बनाते रहे।
©डी एन झा दीपक