आशियाना ढूंढता हूँ
उड़ता फिरता हूँ बादलों की तरह,
मैं रास्तों से मंजिल का पता पूछता हूँ,
कही खो सी गयी हैं मेरी खुशियाँ,
मैं अपनी खुशियों का पता ढूँढता हूँ,
गर कभी हो मुलाकात उनसे तो बता देना,
मैं हर कही बस उसे ही देखता हूँ,
रातों को अक्सर आसमान निहारते हुए,
अपनी किस्मत का तारा ढूंढता हूँ,
लोग आवारा कहने लगे हैं मुझे,
मैं इस आवारगी में अपना बचपन ढूंढता हूँ,
ये महलों का शहर है,
मैं भी इसमें एक आशियाना ढूंढता हूँ!
“संदीप कुमार”