आशिकों का गुलाब थी.
बला की सूरत बड़ी खूबसूरत,
निगाहों में उसके मधुशाला सी थी.
उठाती थी नजरें गिराती थी पलके,
अदाओं में उसके मुहब्बत की हसरत सी थी..
मुझे देखकर, फिर पलकें झुका लेना.
तिरछा सा मुड़कर , फिर मुस्करा देना..
सफर मेरा कम था, तमन्ना बहुत थी.
न कोई हवस थी, न कोई जलन थी..
यूं हीं सफर साथ, चलता रहें गर.
मुहब्बत की खुशबू का , अहसास करके.
निगाहों से रसपान करते रहें हम.
कुदरत का तोहफा , जंहा का अजूबा थी
मयखाने की शराब, आशिकों का गुलाब थी.
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लोधी श्याम सिंह तेजपुरिया
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6/11/023
फरूखाबाद