((((आवाज़))))
क्या कहें आवाज़ नही सुन रही,
एक मोहब्बत गूंजती थी कभी
आज नही सुन रही.
सब खामोश है ज़माने का चेहरा,
उम्मीदों की कोई प्रभात नही सुन रही।
कुछ तो कसूर है चाँद का,
अब कोई रात नही सुन रही.
चुप है तारों की चमक,
गुजरती कोई बारात नही सुन रही।
कोई दिखता नही अब इन राहों पर,
कदमों की कोई जात नही सुन रही.
अलग अलग से खड़े हैं सब,
ये कानों को कोई बात नही सुन रही।।o
इतना खौफनाक मंजर नही देखा कभी,
आईने में खुद की औकात नही दिख रही.
पिंजरे में इंसान खुद जाकर बैठा है,
कुदरत की कोई लिहाज नही दिख रही।
मसला तो गंभीर है अमन,इंसान की अकड़ में
वो अंदाज़ नही दिख रही.
आखिर खुदा की रहमत से बागों में बहार आ ही गयी,
अब कोई कली गुलाब से नाराज़ नही दिख रही।