आवारगी
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
आवारगी
महकती फ़िज़ां में महक जाना कोई अज़ब अज़ाब तो नहीं
बहकती ख़िज़ाँ में बहक जाना बानगी के ख़िलाफ़ तो नहीं।।
तुमसे छुपा ही क्या है ये नशा जिसमें डूब कर मैं इतराता हूँ
उसी नशे का स्वाद तुमको भी लगाना सखी कोई बुरा तो नहीं।।
याद आओगी जो यूँ रूठ जाओगी देखो भटक तो न जाओगी
आवाज़ देकर जो तुमको बुलाऊँ तो इसमें कुछ बुरा तो नहीं।।
हदें बना लो, जाओ जा के देखो, ये आसान बेहद सी बात है
सीधे सपाट रिश्तों में गांठें लगा लो, मैं कोई सरफिरा तो नहीं।।
महकती फ़िज़ां में महक जाना कोई अज़ब अज़ाब तो नहीं
बहकती ख़िज़ाँ में बहक जाना बानगी के ख़िलाफ़ तो नहीं।।
नसीब अच्छा हो तो दोस्त भी मिल जाते हैं खुशनसीबी से
यूँ तो गमख्वारियत का सिलसिला तो आजतक थमा नहीं।।
मैं नहीं कहता कि मैं ही इक नुमाइंदा हूँ अब्रे शराफ़त का
खोज़ ने जाओगी तो देखोगी मुझसा कहीं मिला ही नहीं।।
आशिक़ी ने आशिक़ी को किया है बे- इज्जत बुरी तरहां
ये एक अबोध बालक है जिसका तो मुकाबला ही नहीं।।
महकती फ़िज़ां में महक जाना कोई अज़ब अज़ाब तो नहीं
बहकती ख़िज़ाँ में बहक जाना बानगी के ख़िलाफ़ तो नहीं।।