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1 Jun 2024 · 1 min read

आलोचना के द्वार

आलोचना के द्वार

आलोचनाओं के द्वार पर
हम सब खड़े
कद सभी के बौने मगर
हम बड़े-बड़े

हर लहर की साँसें प्यासी
हर उम्र हाँफती रही
सोचते रहे हम सारे
हमसे काँपती रही

इस हृदय की कामना
के पट कब खुले कहां
पढ़ते रहे ढाई आखर
सेतु बंध खुले कहां

कोलाहल की बस्ती में
कौन चितवन ले उड़ा
एक अधूरी प्यास थी
मौन सरगम ले उड़ा

कोने फटे खत पुराने
हमने सब फेंक दिए
जो लिखा नये पृष्ठ पर
आखर-आखर फेंट दिए।।

बंद मुट्ठी आलोक नागर
रेत के मकान खड़े
बंद-बंद हैं दरवाजे
आलोचना के दर खुले।।

सूर्यकांत

Language: Hindi
1 Like · 103 Views
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