आलेख : सजल क्या हैं
क्या हैं सजल?
सजल आज एक साहित्यिक विधा है जिसका अवतरण साहित्य में आज से चार वर्ष पूर्व हुआ और जिसकाश्रेय पूर्ण रूप से मथुरा निवासी डिग्री कालेज से सेवानिवृत श्री अनिल गहलौट जी को जाता हैं।
यह ग़ज़ल की भाँति ही लिखी जाती है लेकिन किसी पूर्व सुनियोजित मीटर, मात्रा-विधान, गण-विधान या बहर पर अपने शब्द या वैचारिक कल्पना नहीं सजाई जाती। छंद-विधान हो या ग़ज़ल-विधान, दोनों पर ही अपनी भावपक्ष व कलापक्ष को सजा कर रखना और स्वरचित रचना कहना एक प्रकार की चोरी ही है। ऐसे रचनाओं में मौलिकता का आभाव सदा चुभता रहता है।
मुझे सजल में कई मौलिकताएँ देखने को मिली –
१–सजल का अपना छंद होता है।
२–इसका अपना व्याकरण होता है। अपने नियम हैं और अपनी शब्दावली व नमावली है अर्थात ‘भाषा में व्याकरण ढूँढा जाता है” जैसी उक्ति को चरितार्थ करती करता है।
३–इसकी अपनी लय, अपनी ताल तथा अपनी गति होती है।
इसका अपना मौलिक छंद या बहर है
४–इसके कोई भेद नहीं होते। ग़ज़ल की तरह सजल ही कहलाती है।
५–रचनाकार की मौलिकता को विशुद्ध बनाए रखती है।
६–विशुद्ध हिंदी की समर्थक है। हिंदी शब्दावली इसकी आत्मा है।
रदीफ़, क़ाफ़िया, कता जैसे शब्दों को समान्त, पदान्त, पल्लव जैसे शब्द प्रदान किए हैं।
७–लेखन बहुत सरल व मनभावन हैं।गेयता इसका प्रधान तत्व हैं।
८–बोलचाल भाषा के शब्द व विशुद्ध हिंदी के शब्द स्वीकार्य हैं किन्तु क्लिष्ट उर्दू के शब्द स्वीकार्य नहीं।
९–बोलचाल के उर्दू के शब्द यदि प्रयुक्त किए भी गए हैं तो उनका व्याकरण हिंदी का होना अनिवार्य हैं।
१०–सजल का विषय पटल ग़ज़ल की तुलना में अत्यंत विशद हैं इश्क और माशूक के दायरे से निकल समाज और राष्ट्र व अंतराष्ट्रीय नभ में कुलाचे भरती है।
११–अभी चार वर्ष ही हुए हैं सजल विधा के अवतरण काल को लेकिन इतनी लोकप्रियता प्राप्त की कि अब सभी सजल लिख रहें हैं।
१२–सबसे बड़ी बात यह कि गीत की तरह मौलिकता के हर बिंदु की कसौटी पर खरी सिद्ध हो रही हैक्योंकि कोई भी रचना तभी मौलिक कहलाती है जिसका हर तत्व स्वयंभू हो।
सुशीला जोशी, विद्योत्मा
मुजफ्फरनगर उप्र