*आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी की सहयात्रा*
आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी की सहयात्रा
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आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी की एकरूपता इतिहास सिद्ध है। वर्ष अट्ठारह सौ पिचहत्तर विश्व इतिहास के आध्यात्मिक दृष्टिकोण से एक महान वर्ष रहा है । भारत में स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी वर्ष जहाँ एक ओर 10 अप्रैल को आर्य समाज की स्थापना की ,वहीं दूसरी ओर 17 नवंबर 1875 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना कर्नल ऑलकॉट तथा मैडम हेलेना पेट्रोवना ब्लेवैट्स्की ने मिलकर की । दोनों का उद्देश्य आध्यात्मिक चेतना का जागरण था । दोनों उच्च नैतिक मूल्यों पर आधारित संस्थाएं थीं। दोनों ही सत्य को ग्रहण करने के लिए तथा असत्य को त्यागने के लिए प्रतिबद्ध थीं। दोनों संस्थाएँ एक अच्छे मनुष्य के निर्माण के लिए प्रयत्नशील थीं। केवल इतना ही नहीं आर्य समाज जिन चार वेदों के ज्ञान के आधार पर संपूर्ण विश्व में वैदिक संस्कृति और धर्म की पताका फहराने का इच्छुक था ,उन वेदों के प्रति थियोसॉफिकल सोसायटी के संस्थापकों की भी गहरी रुचि थी ।
थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापिका मैडम ब्लेवैट्स्की युवावस्था में भारत और तिब्बत का भ्रमण कर चुकी थीं। बौद्ध मठों में उन्होंने गुह्य ब्रह्म ज्ञान की अनूठी शिक्षाएं प्राप्त की थीं। कठोर साधना करके उनके जीवन ने एक नया परिवेश ग्रहण कर लिया था । इसका काफी कुछ श्रेय भारत के अध्यात्म को जाता है।
ऐसा नहीं कि मैडम ब्लेवैट्स्की अध्यात्म के पथ पर युवावस्था में अचानक आगे बढ़ी हों। उनके भीतर की दिव्य शक्तियां उस समय भी प्रबल थीं, जब वह मात्र सात या आठ वर्ष की थीं। एक घटना में जब पुलिस हत्याभियोग में उनके नौकर को पकड़ने के लिए घर पर आई ,तब मैडम ब्लेवैट्स्की ने हत्या की घटना का समूचा चित्रण बैठे-बैठे ही पुलिस को दे दिया था। उनके पिता भी उस समय मौजूद थे। बाद में ब्लेवैट्स्की के विवरण के आधार पर असली हत्यारे गिरफ्तार हुए थे । दिव्य शक्तियाँ किस प्रकार किसी व्यक्ति के जीवन में उसके बचपन से ही प्रभावी होती हैं ,मैडम ब्लेवैट्स्की का जीवन इसका एक जीता जागता उदाहरण है।( धर्मपथ -पत्रिका मई 2021 पृष्ठ 39 )
मैडम ब्लेवैट्स्की और कर्नल ऑलकॉट वास्तव में सत्य की खोज के लिए धर्म-यात्रा पर थियोसॉफिकल सोसायटी के माध्यम से निकले थे । उधर स्वामी दयानंद का आध्यात्मिक व्यक्तित्व विश्व में अनूठा ही था । वेदों का उनका ज्ञान तथा निष्ठा अद्वितीय थी । उनके जैसा वैदिक संस्कृति का प्रकांड पंडित कोई दूसरा नहीं हुआ । तर्क की कसौटी पर सत्य को प्रतिष्ठित करना स्वामी दयानंद की विशेषता थी । हिंदू धर्म को सब प्रकार के अंधविश्वास और कुरीतियों तथा पाखंड एवं भ्रम-जाल से मुक्त करके विशुद्ध सत्य को हर व्यक्ति के अंतः करण में स्थापित करना स्वामी दयानंद का लक्ष्य था।
स्वाभाविक रूप से थियोसॉफिकल सोसायटी और आर्य समाज का संपर्क आया। कर्नल ऑलकॉट तथा स्वामी दयानंद का पत्र व्यवहार शुरू हो गया । कर्नल ऑलकॉट स्वामी दयानंद को पत्र लिखते थे और स्वामी दयानंद कर्नल ऑलकॉट को पत्र भेजते थे । 18 फरवरी 1878 को कर्नल आऑलकॉट ने स्वामी जी को इस आशय का पत्र लिखा कि आप हमारा मार्गदर्शन करें। 5 मई 1878 को स्वामी जी ने एक पत्र किसी को लिखा जिसमें इस आशय की शब्दावली थी कि कर्नल ऑलकॉट और मैडम ब्लेवैट्स्की का आचार-व्यवहार आर्य समाजानुकूल है। यह अध्यात्म जगत के शीर्ष महापुरुषों का परस्पर सम्मोहन था।वास्तव में दोनों संस्थाएँ मिलकर काम करने की इच्छुक थीं ताकि उस लक्ष्य तक जो सत्य पर आधारित है न केवल स्वयं पहुंचा जाए अपितु संसार को भी उसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जा सके ।
थियोसॉफिकल सोसायटी के संस्थापक स्वामी दयानंद से प्रभावित थे। यह भाव इतना गहरा था कि थियोसॉफिकल सोसायटी ने 27 मई 1878 को इस प्रकार का प्रस्ताव रखा कि थियोसोफिकल सोसायटी का नाम “थियोसॉफिकल सोसायटी ऑफ द आर्य समाज ऑफ आर्यावर्त” रहेगा । उसने यह भी कहा कि न्यूयॉर्क की सोसाइटी अब आर्य समाज में मिला दी जाएगी । स्वामी दयानंद इस प्रकार आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी के शीर्ष पर प्रतिष्ठित हो रहे हैं। ऐसा ही हुआ । 27 जून 1878 को जब थियोसॉफिकल सोसायटी की लंदन शाखा स्थापित हुई तो उसका नाम “ब्रिटिश थियोसॉफिकल सोसायटी ऑफ आर्यावर्त” रखा गया । यह स्वामी दयानंद का प्रभामंडल था ,जिसका जादू सारी दुनिया में धर्म-जगत को प्रभावित कर रहा था । वेदों के प्रति इन घटनाओं से गहरी आस्था का स्वर प्रकट हो रहा था ।
8 मई 1878 को स्वामी दयानंद ने आर्य समाज शाहजहाँपुर के मंत्री को पत्र में बताया कि कर्नल ऑलकॉट उनसे सहारनपुर में मिले थे । फिर मेरठ में भी वह पधारे थे । वहां उनके व्याख्यान हुए और हमारे साथ वार्तालाप हुआ । स्पष्ट था कि दोनों महानुभाव एक दूसरे के प्रशंसक थे । परस्पर संबंधों की प्रगाढ़ता आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी में बढ़ने लगी । फरवरी 1879 में मैडम ब्लेवैट्स्की और कर्नल ऑलकॉट मुंबई पधारीं। थियोसॉफिकल सोसायटी की पहली शाखा मुंबई में खुली । संस्था का मुख्यालय न्यूयॉर्क से मुंबई आ गया ।
दिसंबर 1879 में मैडम ब्लेवैट्स्की और कर्नल ऑलकॉट इलाहाबाद (प्रयागराज) पधारे । प्रखर आर्य समाजी एवं स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुंदरलाल ने आपको नगर का भ्रमण कराया था । यह सब आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी की अंतरंगता को प्रदर्शित कर रहा था। एक प्रकार से अब थियोसॉफिकल सोसायटी आर्य समाज की शाखा के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी।
इस मोड़ पर दो महान संस्थाएँ बहुत ज्यादा समय तक एक साथ नहीं चल पाईं। मैडम ब्लेवैट्स्की के साथ उनकी दिव्य चमत्कारी शक्तियों का एक आभामंडल विद्यमान रहता था । आकाश से गुलाब के फूलों की वर्षा कर देना ,यह उनके अनेक चमत्कारों में से एक था ।
जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि आखिर स्वामी दयानंद ने 26 जुलाई 1880 को यह घोषणा क्यों की कि थियोसॉफिकल सोसायटी तथा आर्य समाज में से कोई भी किसी की शाखा नहीं है ,तो इसका अर्थ यह निकलता है कि दोनों के लक्ष्य भले ही एक हों लेकिन अब उनके रास्ते अलग हो गए थे। कारण संभवत यह जान पड़ता है कि आर्य समाज पूरी तरह वेदों को आधार मानकर आगे बढ़ने में विश्वास करता है जबकि दूसरी ओर थियोसॉफिकल सोसायटी के साथ दिव्य चमत्कारी प्रदर्शनों का पुट शामिल रहता था । इसके अलावा आर्य समाज के अंतर्गत कार्य करने से थिओसॉफी के सत्य की खोज चारों दिशाओं में करने के उसके कार्यक्रम में अवरोध तो होता ही था । एक दिन थियोसॉफिकल सोसायटी और आर्य समाज अलग हो गए । इस पार्थक्य का अर्थ यह नहीं है कि दोनों में कोई आधारभूत मतभेद हो अथवा उनकी कार्यपद्धति मौलिक रूप से अलग हो या उनके लक्ष्य और विचार अलग-अलग हों।
थियोसॉफिकल सोसायटी ने ज्ञान के अथाह भंडार के रूप में चारों वेदों की उच्चता को स्वीकार किया । भगवद् गीता को संसार की एक महान ज्ञान मंजूषा के रूप में ग्रहण किया । मृत्यु के बाद का जीवन थियोसॉफिकल सोसायटी द्वारा प्रतिपादित महान सत्यों में से एक है । पुनर्जन्म की वास्तविकता को थियोसॉफिकल सोसायटी स्वीकार करती है । आत्मा का अस्तित्व तथा शरीर की नश्वरता एक ऐसा संदेश है जिसे प्रचारित और प्रसारित किए बगैर थियोसोफिकल सोसायटी का अभियान अधूरा है। आत्मा के अनंत विस्तार की अपार संभावनाओं को थिओसॉफी में आदरपूर्ण स्थान प्राप्त है । वह एक ऐसी जीवनदाई शक्ति में विश्वास करती है ,जो संपूर्ण विश्व में व्याप्त है । जिसे हाथों से छुआ नहीं जा सकता । सूँघा नहीं जा सकता लेकिन फिर भी अगर कोई उसे प्राप्त करने की इच्छा करता है तो वह उसे प्राप्त कर सकता है । वेदों में जिस ध्यान की महिमा गाई गई है और आर्य समाज जिस का सबसे बड़ा प्रचारक है ,उसमें थियोसॉफिकल सोसायटी को भी गहरा विश्वास है । कुल मिलाकर थियोसॉफिकल सोसायटी और आर्य समाज का मतभेद केवल समय का फेर कहा जा सकता है । आंतरिक कलेवर में निराकार तथा सर्वव्यापी सर्वोच्च सत्ता में विश्वास कुछ ऐसी आस्थाएं हैं, जिनको लेकर आर्य समाज और थियोसॉफिकल सोसायटी के सदस्य आज भी सहयात्री हैं ।
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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