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11 May 2024 · 1 min read

आभासी खेल

अब ना कोई गुल्ली डंडा,
ना ही अब वो कांच का कंचा,
ना लंगड़ी ना गप्पा-गिप्पी,
ना फेंके कोई बित्ता-चिप्पी,
ना टीप-रेस ना मटकी फोड़,
ना बने घरौंदे रेत जोड़…

ना गुलेल का रहा निशाना,
ना फिल्मी फोटो जीत खजाना,
ना घर घर मे छुपम छुपाई,
ना होती अब टांग लड़ाई…

कच्ची कैरी, बेर ना इमली,
झूल के झूला, पकड़े तितली,
ना अटकन ना दही चटाकन,
ना चंदा कौड़ी आंगन आंगन…

अब सब कुछ आभासी है,
जो जीते शाबाशी है,
होते हैं खेल पटल पर पूरे,
खेलें बच्चे पर रहें अधूरे…

ना कसरत ना धूम धड़ाका,
ना दंगल का बजे नगाड़ा,
ना होली की लकड़ी जुटती,
ना बच्चों की टोली दिखती…

हमने सब आभासी रच डाला,
सब बाल सुलभ पर बालक प्यासा,
बस आंखे ,उंगली हरकत करती,
और पटलों मे जीवन रचती….

©विवेक ‘वारिद’

Language: Hindi
35 Views
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