‘आभार’ हिन्दी ग़ज़ल
उसका हर रँग, हरेक रूप, सुहाना सा लगे,
दिल मिरा उसका ही, हर चन्द, दिवाना सा लगे।
लजा के चाँँद, मेघ मेँ है, जा छुपा फिर से,
उसका लावण्य तो, यौवन का ख़ज़ाना सा लगे।
बिछा रहा हूँ, पलक-पाँवड़े, तन्मयता से,
उर मिरा अब तो बस, उसका ही, ठिकाना सा लगे।
हिलें अधर जो, हो पुष्पों की ही, वर्षा प्रतिपल,
सुरभि पवन की, उसका क़र्ज़, चुकाना सा लगे।
तितलियोँ को भी, ईर्ष्या है, नृत्य से उसके,
उनका हर भाव अब, आभार जताना सा लगे।
झलक है प्यार की, दिखने सी लगी आँखों मेँ,
उसका इनकार भी अब, मुझको बहाना सा लगे।
शब्द रीते हुए, वर्णन भी अब करूँ कैसे,
उसको देखूँ, तो हरेक गीत, पुराना सा लगे।
दीप “आशा” के, जल उठे हैं, निराशा मेँ भी,
ओज, साहस भी अब तो, मेरा, घराना सा लगे..!