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27 Jun 2023 · 1 min read

आफ़त

ख़ता के खातिर ख़ुदा का सजदा
खानुम की आदत सी है
ज़ालिम पहले जलिल करती है
आज कल जियारत को कहती है।
कल आलिमों सा आलाप की
मेरा आलम ही बदल डाला
जाम जमाल का ही था
पता नही कब ज़हर मिला डाला।
जायज है कि जंग जारी रहे
पर जुर्माना किस बात पे लगा
जलवा तो जश्न का होगा ना
ज़ालिम का तमाचा मुझे क्यों लगा।
आबरु आज दांव पर है
गुस्से से गश्त खा रहे है
आपकी गेसुओं की कसम
नहीं पता कहां जा रहे है।
जनाजा जन्नत को गयी
कफ़न उठा फरमा रही थी
अकेले कहां निकल लिए
मैं भी तो आ रही थी।।
स्वरचित:-सुशील कुमार सिंह “प्रभात”

Language: Hindi
2 Likes · 1 Comment · 444 Views
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