आप
आपके चरणों की
खाना चाहता था कसम।
किन्तु,भरे थे महावर से आपके पैर।
स्निग्धता रूआँसा सा पड़ा था
सौंदर्य के कोप-भवन में।
जड़ हुआ हृदय।
आपके मांसल, सुंदरता-सिक्त टांगों से
चाहता था लिपटना मेरा वजूद।
बाँध लिए थे आपने पायल घुंघरुओं से भरे।
जड़ हुई मेरी प्रार्थनाएँ।
आपके उरुओं पर चित्रवत उकेरे गये
तिलों को गिनकर
गगन के तारों को चाहता था छूना।
आपने भींचे हुए थे उन्हें
सम्पूर्ण प्रयास और ताकत से।
जड़ हुई मेरी ताक-झांक।
मैं आपके लचीले घुटनों को सहलाकर
करना चाहता था उसे आश्वस्त,
सारा दर्द उसका, समेट लूँगा मैं।
आपने औषधीय सुगंधों से भर रखे थे उसे।
जड़ हो गया मेरा वैधकीय व्यक्तित्व।
आपके अद्वितीय गह्वर में ब्रह्मा से
चाहता था बहस करना।
जानने के लिए ब्रह्म का अर्थ।
आपने पर, डाल रखा था उसमें
विधवा विलाप।
जड़ हो गया मेरा ‘जीवन-उद्देश्य’।
आपके उदर पर रखकर अपनी सुदृढ़ अंगुलियाँ
आपको सारी हंसी चाहता था दे देना।
आपने बाँध रखे थे,सौंदर्य के लालच में अपना उदर।
जड़ हो गई मेरी सारी हास्य-वृत्तियाँ।
आपकी कुम्भ सी गहरी नाभि में मैं
चाहता था डूब मरना।
आपने नहीं किया आमंत्रित ।
मैं राम सी मर्यादा में बंधा रहा।
सीता सा वनवास ढोया खुद।
जड़ हो गई मेरी सारी मर्यादाएँ।
बहुत तरसा था मन
नापने को आपकी पतली कमर।
सामने खड़ा था किन्तु,बड़ा भयावह समर।
जड़ हो गयी, कसने को उठी मेरी भुजाएँ ।
गोलाकार नितंबों में फँसी रही मेरी दृष्टि।
वहाँ आनन्द और आह्लाद था मेरा।
वह स्वर्गिक स्पर्श और मांसल सुख होता।
दृष्टिपात वर्जित कर रखा था आपने।
जड़ होता रहा मैं,
मुखर हुई, हुई थी शर्म व हया।
आपका विस्तृत पार्श्व कुछ बहक रहा था।
सारा संसार देखकर दहक रहा था।
इसलिए अनावृत करने को हुआ मन।
आपने समेटे थे,सहेजे थे और
कर रखे थे सुरक्षित प्रीत हेतु।
निश्चय ही अपने मीत हेतु।
जड़ हो गई थी मेरी मित्रता।
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