आधी-आबादी की व्यथा
आधी-आबादी की व्यथा
अश्कों में डूबी कलम,
लिख रही मेरी दास्ताँ।
मुझको था बस एक भ्रम,
मेरे स्वाभिमान को, तुमसे है वास्ता।।
मेरा भ्रम, उसी पल टूटा,
जब गूंजी मेरी किलकारी।
घर में फैला सन्नाटा,
माँ की गूंजी, सिसकारी।।
ना डाली लोहड़ी, ना बजी शहनाई,
पिता की परेशानी, थी मेरी परछाई।
मैं रहती हरदम सहमी और सकुचाई,
बचपन की शैतानी, मैं कर नहीं पाई।।
सहानुभूति के हाथ, अपनो के,
कब वासना में, बदल गए ।
मर्दन करते हुए, मेरे बदन को ,
आत्मा तक को घायल कर गए ।।
माँ-पिता की अपनी थी मजबूरी,
मेरे बचपन को कैद कर दिया।
घर के काम, थे जो जरुरी,
माँ ने मुझको, सिखला दिया।।
मेरे काम से खुश हो कर,
मेरे प्रति, पिता का प्यार जगा।
मुझे भी उनके प्यार को पाकर,
कुछ करने की आस जगी ।।
देखा सपना कुछ बनने का तो,
तुमने पाँव में बेड़ियां डलवाईं ।
मेरे महत्वाकांक्षी सपनों को,
कभी भी पर लगने नहीं पाए।।
घर से बाहर निकलने को,
मन मेरा परेशान रहे।
पर कामुक और अश्लील इशारे,
मेरी आत्मा को लहू-लुहान करे।।
घर छूटा और सपने टूटे ,
शादी कर दी अपनो ने।
खुश होने के, भ्रम सभी टूटे,
जख्म दिए , नए रिश्तों ने।।
आधी-दुनियाँ की आबादी,
मांग रही है अपनी आजादी।
कब तक देखोगे मेरी बरबादी,
घर में बनाकर मुझको कैदी।।