आदमी
मंजिलों की चाह में
कफ़िलों के साथ
हर पता पर रहगुजर से
पूछता है आदमी.
……
आदमी जब आदमी को
लुटने लगा
आदमी के नाम पर
अब सोचता है आदमी.
……
युद्ध अंत पर बालबर्ष
बेरोजगारी में युवावर्ष
अशांति में शांतिवर्ष
मनाता है आदमी.
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करने के लिए कंप्यूटर
कराने के लिए रोबोट
मारने के लिए परमाणु बम
बना लेता है आदमी.
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आतंकवाद को
जातिवाद का नारा देकर
आदमी को ही अब
भड़काता है आदमी.
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दहेज की वृद्धि पर
बहुओं की मृत्यु पर
ट्यूब चाईल्ड
बनाने लगा है आदमी .
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वादे एतबार
जबसे मुकरने लगे
छाछ भी पीने से पहले
अब फूंकता है आदमी.
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झोपड़ी वाले को धनवान
मकबरे को इमारत
मंदिर को कब्रिस्तान
समझता है आदमी.
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दूध में पानी
पानी में दवाई
चावल में कंकड़
मिलाता है आदमी.
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मंगरू को विद्यापति
विद्यापति को लाठिपति
गाँधी को दस्यु
बना देता है आदमी.
……
राम को नर्क
रावण को स्वर्ग
कालिदास को संसद
पहुंचा देता है आदमी.
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घर घर में जबसे
गृहयुद्ध होने लगा
घर में जाने से पहले
अब रोता है आदमी.
…..
आधुनिकता में जबसे
पलने लगा है आदमी
आदमी को देखकर
अब खांसता है आदमी.
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(इस कविता को मैंने 4 अप्रैल 1986 में लिखी थी. अविकल प्रस्तुत)