आदमी
आदमी,तुम्हें सारे भूले पल याद आ जाते हैं
आदमी होने के और जानवर होने के भी।
राज की बात भी और रोज़मर्रा की भी।
याद आ जाते हैं खुशनुमा पल और गमगीन रातें भी।
क्यों याद नहीं आते वायदे और आश्वासन
बलात्कार के लिए मेरी सहमति के किए।
क्यों? राजनीति, चुनाव के बाद हो जाता है अछूत।
कपूत होने नहीं चाहिए नेता,ग्रंथ-वाक्य है यही न?
मतदाता जितना चाहे उतना होते रहे कपूत।
मत का अधिकार तुम्हारे डिब्बे में डाल
हक दे जाता है करने तुम्हें अपने लिए कमाल।
लग जाते क्यों? दिखाने भ्रष्टता व धृष्टता का
शोधित अपना कमाल।
आदमी! पशु और सभ्यता में कौन अव्वल परिभाषा?
कितने टुकड़े होती है सभ्यता,कटार से कट,यह आशा।
सभ्यता से संस्कृति हट जाए,दिखेगा कुत्सित तेरा चेहरा।
परिभाषाओं में और होने की होड़ युक्त दाग-धब्बे से गहरा।
सभ्यता के लिए सुस्ताने का वक्त होता नहीं।
बनाये रखती है उसे उसकी निरंतरता।
मरने के बाद जीवित होने से पुनर्जन्म नहीं होता।
आदमी,जीवित होते हुए पुनर्जन्म लेता है जिसका चाहे।
आदमी का, जानवर का, कीड़े मकोड़े या मृत जन्तु का।
यह होता है उसमें स्थित सभ्यताओं के ज्ञान-तन्तु का।
पुनर्जन्म अपरिभाषित नहीं है।
गौर से देखो साधित यही है।
आदमी, संबोधित करते हुए आदमी, होना चाहिए हर्ष।
यहाँ सदा होता आया है आदमी बड़ा,यह है भारतवर्ष।
——————–18/9/21——————————————-