आदमी रोज मरता है
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आदमी रोज मिलता है।
पागलपन की हद तक भागता दौड़ता।
कोई बात नहीं होती।
पर,जानता हूँ,काहे की जल्दी है।
शाम की रोटी तवे पर कुरकुरा सिके।
आदमी रोज दिखता है।
सामने पार्क में बैठे जाड़े की धूप सेंकते।
इत्मीनान से।
या पीपल के पास
उसकी छाया में चुट्कुले सुनते हुए।
बैठे हुए शान से।
जानता हूँ क्यों बेफिक्र और बेपरवाह है।
उसके हिस्से का पसीना बहा रहा है कोई और।
आदमी रोज बिकता है।
रेजगारी की तरह औने-पौने में।
अपनी कीमत नहीं लगाता,बस बिकता है।
सब जानते हैं,हम भी।
उसके उदर में अन्न नहीं जल भरा है।
और एसिड आंतों को कुरेदता है।
आदमी रोज सुबकता है।
उसकी उम्मीदें रोज होती है भू-लुंठित।
उसका सोचा स्वप्न रोज बिखरता है।
उसका आत्मबल रोज टूटता है।
हमें पता है ऐसा क्यों होता है।
उसक खनिज और अयस्क षडयंत्र में
फंसा हुआ है।
कानून और नियम के षडयंत्र को
ईश्वर नहीं पालता।
आदमी रोज टूटता है।
और अपने अंदर रोज अपनी हत्या करता है।
ह्त्या के अपराध से रोज अपने को बरी करता है।
नहीं कर पाता तो मानव से उतर मर जाता है।
आदमी रोज मरता है।
मौत नहीं मानवता।
————31/10/21———————————-