आदमी की क्रूरता में कौन सा रस है(नवगीत?
नवगीत18
आदमी की
क्रूरता में
कौन सा रस है ?
देख जग की
रीति इन
आँखों में पावस है ।
रुग्णता से हार जाती तीक्ष्ण क्षमताएँ,
आदमी को तोड़ देती क्षुद्र बाधाएं
हो बुरा जो वक्त मोमी भी लगे पत्थर,
वक्त अच्छा
हो तो
पाषाण पारस है ।
शर्म को झकझोर देती तुच्छ घटनाएं ,
हो गयी दूषित मनुज की मानसिकताएं ,
न्याय का अस्त्तित्व जैसे है बुझा दीपक ,
सत्य के
अभिमान में
उत्साह नीरस है ।
प्रेम का अवलम्ब निशदिन हो रहा जर्जर,
भाव खाती भावना में आ रहा अंतर ,
हो रहा विस्तार जीवन में बुराई का ,
आत्मा
दुत्कारती
खामोश मानस है ।
मात्र सतकर्मों से मिलता पुण्य जीवन में,
धर्म भरता है अक्षुण्ण उद्वेग तन-मन में ,
ऊर्जा मिलती यहाँ उपमेय के द्वारा ,
संसार में
काव्य का
उद्गम भी सारस है ।
–रकमिश सुल्तानपुरी