आदमी आदमी का हो जाए
काश के आदमी ना बदले
किसी का वक्त देखकर।
ये वक्त बदलता कहाँ है
किसी का वक्त देखकर।
वक्त क्या एक सा रहा है
किसी का?
तो फिर वक्त के सामने
क्या हैसियत है आदमी का।
खुशियां और गम बाँट लेने से
आदमी को सुकून मिलता है।
फिर क्यों नहीं बाँट लेता है
अपना सुख और दुःख।
वक़्त के सामने फ़ैसला
जिन्दगी का हो जाए।
काश ऐसी बयार चले कि
आदमी आदमी का हो जाए।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी