आदत
बदली है ये तो
बदलेगी,
न बदली तो,
तुम्हें बदलेगी,
दावाग्नि है ये,
नहीं बुझी तो,
हम सबको,
बदलेगी,
बदली है ये तो,
बदलेगी.
कद ऊँचे नहीं
ये करती हैं
मचान पर बैठे को
खत्म ये करती है,
खाती है न खाने देती है,
व्रत उपवास ये रखती है,
भूखे वंचित हैं,
पत्थरों पर चद्दर चढ़ती हैं,
बदली है ना बदलेगी,
ये झूठे का आभूषण बनती है.
सच को धूमिल करती है,
बहाने कोई भी लेती है.
कस्में वादे इरादे
हररोज़
नित्य नये करती है.
बदली है ना बदलेगी,
स्वप्निल रूप धरती है,
ऊँचे ऊँचे ख्वाब दिखाकर,
हररोज़ नये जाल बुनती है.
चरित्र को अमलीजामा पहनाती है,
खुद को खुद को दूर रखती है,
आईना बने गर समाज,
उसे ये कुचलती है.
राष्ट्रवाद का प्रचम लहराती है,
घुलनशील है ये,
सबको अपने जैसा करती है.
बड़े बड़े भाव ये रखती है,
करोडों अरबों में बिकती है,
सीनाताने चलती हैं,
सबको कुचलती है,
बंजर में उगती है,
मोलभाव ये रखती है,
बड़े बड़े वजूद हिलाती है.
स्वर्ग पर सीढियां चढ़ाती है,
चढ़े चढ़ायें को
अन्न जल का प्रबंध करती हैं,
अज़ब गज़ब रुप हैं इसके,
आस्तिक ये
बनाये रखती हैं,
रुद्राभिषेक अखण्ड ज्योति
विभिन्न स्नान अहंकार ये भरती है.
मुसीबतें बड़ी पैदा करती है,
बस सम्मान में सम्मिलित है.
खुद करती औरों से करवाती है,
सत्ता है ये नित्य नये वादे करती है.
करती कुछ नहीं.
फिर भी चर्चा में रहती है.
माहौल को पकड़
आकाश में इंद्रजाल रचती है.
आदत है ये
ये नहीं बदलती है
बदली है ना बदलेगी,
रुप अनेकों धरती है.
कभी राम रुप
कभी श्याम रुप
कभी मूसा
ईसा फारसी तबाही बनती है,
जाति में ये
ये वर्ण विशेष.
वर्ग नहीं ये बनती है.
कभी गुरु कभी चेला
होती धकमपेल,
गद्दी पर भी ये बैठी है,
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस