आत्महत्या
किसी के आत्महत्या की खबर देखता हूं,
तो मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लगता है,
एक पवित्र, निर्मल हृदय को
इस पत्थरीली दुनिया और
पत्थरीले लोगों से मुक्ति मिल गयी,
तड़पती आत्मा को सुकून मिल गया होगा।
कितनी यातनाएं, तकलीफ़
दे रहा होगा न
उसका ही कोई अपना,
कितनी कोशिशें करता होगा न
वो समझा लेने की
सामने वाले शख़्स को,
पर उसका तथाकथित अपना
करता ही जाता होगा छलनी
उसके कोमल हृदय को..
अंततः
दम तोड़ते लहुलुहान हृदय
व अपने बिखरे हुए
संवेदनशील तन-मन को समेट
खुद को घसीटता हुआ
ढूंढ़ता होगा एकांत
जहां वह अपने लोगों को
याद करते हुए बहा देता होगा
अपने बचे-खुचे
ऑंसुओं के आखिरी कतरे को
और हो जाता होगा
मरुस्थल की भॉंति निर्जन…
हालांकि सज़ा-ए-मौत की तरह
काश आत्महत्या करने वालों के पास भी
अंतिम इच्छा व्यक्त करने का विकल्प होता
तो वह बस यहीं मिन्नतें करता
कि आत्महत्या के उपरांत
उन्हें “कायर” न बोला जाए,
“कायर” का तमगा
उन्हें दिया जाए
जो एक कोमल, निर्मल हृदय को
इस कदर छलनी कर देते हैं,
उनके संवेदनशील मन को
इतना आहत कर देते हैं
जिसका कोई उपचार न हो
और उनकी आत्मा
इस रंग-बिरंगी दुनिया से
मुक्त होने के अंतिम विकल्प को
सहजता से तो नहीं
किंतु विवश होकर
स्वीकार कर ही लेती है।