आत्मसंवाद
एक दिन मन ने प्रज्ञा से कहा,
तुम मुझ पर हमेशा लगाम लगाए रखती हो,
मुझे अपने मर्जी की नहीं करने देती हो,
मैं उन्मुक्त रहना चाहती हूं,
अपनी उड़ान उड़ना चाहती हूं,
पर तुम मुझे कुछ करने नहीं देती हो,
प्रज्ञा ने कहा तू नासमझ कभी न समझ पाएगी, अपनी मर्जी की कर तू बहुत पछताएगी,
मेरी लगाम हमेशा तुझ पर है,
तभी तू अब तक तक खतरों और नुकसान से बचती रही है,
अपनी मर्जी की कर जब तू धोखा खाएगी,
तभी तू समझ पाएगी,
मैं तो तेरी भलाई ही सोचती हूं,
तुझे हर नुकसान और खतरों से बचाती आई हूं,
तू जिसे स्वच्छंदता समझती है,
वह तेरा भुलावा है,
आजादी के नाम पर छलावा है,
तू नादान यह कब समझ पाएगी,
अगर तू मेरा हाथ छोड़कर; उस उन्मुक्तता रूपी आजादी का हाथ थामेगी,
तब तय है, तेरी जीवन नैया साजिशों के भंवर में फंसकर; बेसहारा हो डगमगाएगी,
और अत्याचार एवं अन्याय रूपी चट्टानों से टूट कर बिखर जाएगी।