आत्मशून्य मैं
आत्मशून्य मैं
होना चाहता कबसे!
एक वक्त विस्मृत-सी
स्मृतियाँ की गीत
गूंजायमान है.. निरन्तर,
इसे समरशेष बचे हैं
धनञ्जय के स्वर!
देवदत्त नामक शंखनाद
घनघोर भूतलाकाश तक
प्रतीतमान् प्रदीप्त-सी
देखो कोई सज है…
शिथिल इन्द्रियों
जाग्रत कर
इन्द्रियां भी भरी
किस उच्चट् को नहीं
उच्छाह में कहो
पर, पर बदन प्रिय
या वदन
परिणीता पान है
या पुरूष….