आत्मज्ञान
कुछ तो है अंदर छुपा हुआ , जो हम अब तक जान न पाए,
खुद के अंदर झांककर ,अभी तक पहचान ना पाए,
इधर उधर ढूंढते रहे , कहां छुपा है ढूंढ न पाए,
कभी साधुओं में, कभी सत्संग में,
उसकी खोज में भटकते रहे ,
कभी आख्यानों में, कभी व्याख्यानों में ,
उसे जानने के प्रयास में उलझते रहे,
कभी शांति से एकाग्र चित्त
आत्ममंथन नहीं किया ,
बाहरी संसार में ढूंढने में व्यर्थ
अपना समय नष्ट किया,
हमारी स्थिति उस कस्तूरी मृग की
भांति सर्वदा रही,
जो अंतस्थ में बसा हुआ है, हमारी प्रकृति
उससे हमें वंचित करती रही,