आत्मकथा दंगे की
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सृष्टि के साथ
जन्मा नहीं मैं।
ईश्वर नहीं है मेरा पिता।
मनुष्य सभ्य होने लगा
तब मैं लेने लगा बीजरूप।
मनुष्य के संस्कार में जब
अहंकार करने लगा घर
तब होने लगा मेरा जन्म।
मेरा भ्रूण शोषण के विरोध में
चीख,चीत्कार के दु:खित शब्दों के
स्पंदन से विकसित होता रहा।
मेरा अस्तित्व आक्रोश और गुस्से के लहू
पीता रहा ।
फिर मनुष्य के मष्तिष्क में
गाढ़ निद्रा में सोता रहा।
जीवन में वर्चस्व की असत्य महत्ता का
वार्तालाप के वाक्य सुनता हुआ सोता रहा
‘प्लेसेन्टा’ में लिपटा हुआ।
आदमी के शैशव में आदमजात मैं
विस्मृत स्मृतियों को जिया।
बालपन में छीना-झपटी सीखा।
स्कूलों में गुरु की आज्ञा
अनुशासन की तरह
किताबों के शब्दों में अनजाने
दंगा का ‘द’ रटा।
जंगल मनुष्य के मन में रच-बस जाता है।
दंगे होने से रचा-बसा वह जंगल
हो जाता है प्रकट।
चेतना में पारिस्थिक दंगापन
पृथ्वी पर टूटे पहाड़ों के
दरके चट्टानों सा रहता है बिखरा पड़ा।
अप्रमाणित रस्म,रिवाजों में
दंभयुक्त आवाजों में
पनप लेना मेरा स्वभाव है।
सभ्यता का संविधान एक ही है।
किन्तु,सभ्यता के संस्कार भिन्न।
उन संस्कारों में
लोभ,लिप्सा,इर्ष्या,द्वेष,दुर्भावना,दुष्चरित्रता,
अपरिभाषित भूख-प्यास,और अमानवीय तर्क
बड़ा ही होता है संहारक।
विनम्रता दृढ़ हो तब भी।
जब मानव जंगल से निकला
उसने दानवता नकारा
मानवीय संस्थाएँ संवारा
जंगलीपन पर,पाया न त्याग।
इसलिए लग जाता है
मानवीय बाग-बगीचे में आग।
मानव मन गुफा है ।
इन गुफाओं में नग्न है मन से, मानव।
इन गुफाओं में दानव है तन से, मानव।
इन गुफाओं में तम है यत्न से मानव।
इन गुफाओं में दंगे की प्रतिकृति है मानव।
मेरा जन्म-स्थान गुफाओं की अंधी गहराई है।
मेरा जन्म-क्षण गुफाओं की अस्त-व्यस्त खाई है।
नामकरण यहीं होता है मेरा और चरित्र निर्माण भी।
मैं पल्लव नहीं सध्यः प्रस्फुटित।
मैं युगों की ऋणात्मकता से कठोर हुआ शूल हूँ।
मैं दंगा हूँ ।
आप जानते नहीं,मैं उतना नंगा हूँ।
जिस पुरोहित ने किया मेरा नामकरण,
नहीं था उसके तन या मन पर कोई
मानवीय आवरण।
मेरी कुंडली में सारे ग्रह सम्मलित-एकाकी हैं।
राहू,केतु,शनि के साथी हैं,कुविचारित।
विध्वंस की दुर्भावना से शासित और प्रेरित।
मैं दंगा हूँ।
मैं अपने विचारों की गंगा हूँ।
शिशु-रूप मनुष्य से वृद्ध-रूप मनुष्य तक
पालित,पोषित; आदमी अचंभा हूँ।
मेरा कंकाल नर नहीं समर है।
मेरा लहू तरल नहीं गरल है।
मेरा मांस-मज्जा प्रतिस्पर्द्धा से नहीं
प्रतिशोध से सजा है।
मैं आता हूँ,जाता नहीं।
बैठ जाता हूँ दुबककर हत्यारा सा।
आनंदप्रद है नष्ट करना मेरे लिए
मनुष्य का संसार प्यारा सा।
नस्लवाद,पूजा-पद्धतियाँ का पूजा-प्रतिज्ञा,
कल्याण का विचारवाद, सभ्यता का वन्य-संरक्षणवाद,
विस्तार का वर्चस्ववाद,मनुष्य का हिंस्र-उन्माद,
सामंती सोच का हीन ऐश्वर्यवादिता,सौंदर्य पर अधिकारवाद,
सारे द्वेष का कुतर्कवाद,
मेरे क्षुधा को प्रसाद है।
मुझे करता रहता आबाद है।
मेरी नींद एक अंतर के साथ कुम्भकर्णी है।
कुम्भ्कर्ण की नींद सावधिक उचटती थी
मेरी सहसा ही।
जैसे ही काट ले कोई चिकोटी
‘वादों’ के क़िस्म’ के कसमों की।
उचट जाए तो हो जाता भूख है बेहाल
और प्यास लाल।
मैं बन जाता हूँ आयुध।
‘तहस-नहस’ मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार और
मन व तन से मैं
निकृष्टता का अधम इंसान।
हैवानियत का उत्कृष्ट हैवान।
सारा शहर भागता हुआ, आश्रय के लिए।
मेरे ‘नारे’ अट्टहास करते हुए करते हैं पीछा।
शहर की सीमा या उसके मृत्यु तक।
जो दुर्बल हैं उसका बलात्कार।
जो सबल हैं उस पर सामूहिक अत्याचार।
मेरे पौरुष की पराकाष्ठा मैं मानता हूँ।
इतिहास इसे निंदनीय और कुकर्म लिखता है।
लिखे, मेरा क्या?
मैं फिर आऊँगा।
शहर की गलियों में जब
लाशें तैरती है लहू में
आर्तनाद गूँजती हैं फिज़ाओं में
दुर्गंध भरती है हवाओं में
रहम की गुहार आवाजों में
मैं होता हूँ प्रफ़्फुलित,मैं दंगा हूँ ।
मैं जन्म से ही बेढंगा हूँ।
मेरी ह्त्या नहीं होती।
मानवता उठे तो मैं भाग जाता हूँ।
किन्तु,मैं फिर आता हूँ।
मेरी इच्छा है आकांक्षा भी।
कोई मुझे टोके ।
मेरे इंसानियत को बिखरने से रोके ।
आत्म-संशय पर ‘वादों के क़िस्म’ हावी है।
आत्मानुशासन का अशिक्षा दावी है। –
मैं दंगा आदमी की ही जात में पैदा हुआ केवल।
पर,हमारा आकलन कर यह कहो कि
आदमी हूँ कि नहीं मैं!
एक ही है बस हमारा अच्छा लगे ऐसा प्रसंग।
दौरान दंगे देखता खुद को तो होता हूँ दंग।
लूट-पाट, मार-काट करना है मुझ दंगे का गौरव।
चीखती और भागती,रहम मांगती औरतों को
करने निर्वसन में भोगता सुख बन के कौरव।
मुर्दा हो देह और गिद्ध सी नजरें हमारी
चिथड़े करने का सुख भी भोगता हूँ।
अपनी आदमियत इस तरह मैं छोड़ता हूँ।
हर ही दंगा मैं अभी तक देवता को डाल आया।
तुम्हारा था बड़प्पन दांव पर,कान में वाक्य यह भी
डाल आया।
धर्म की सत्ता बड़ा बेजोड़ है,धर्म ने हमको सिखाया।
इस धरा का राज्य अति अद्भुद है राज्य ने हमको बताया।
स्वर्ण की आभा में ही सौंदर्य का है प्राण बसता।
क्या कहें ! सौंदर्य ने लालच दिखाया।
अहम् उतम, जीव में है, अहंकार ने यह सुझाया।
और सुरक्षा है इसीमें डर ने था इतना डराया।
इस तरह दंगे का फंदा मैं गले में बांध बैठा।
आदमी मैं त्याग कर आदमीयत
दंगे को खा,पचाने राक्षसों के घर राँध बैठा।
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