आज रविवार है -व्यंग रचना
आज रविवार है, आप सोच रहे होंगे जैसे आप सभी के लिए रविवार ख़ास होता है मेरे लिए भी होगा ! नौकरीपेशा लोगों के लिए तो में समझ सकता हूँ , लेकिन मेरे लिए ऐसा नहीं है। निजी चिकित्सा पेशे में होने का मतलब, सन्डे हो या मंडे , रोज दो रोटी के जुगाड़ के हथकंडे।
वैसे मैं आपको एक राज की बात बताऊँ, ये नौकरी पेशा लोग भी ना ,चाहे जितना दावा कर लें, वीकेंड पर मौज-मस्ती का फोटो इंस्टाग्राम पर डाल कर लाइक्स बटोर लें, लेकिन असल जिंदगी में इनकी हालत घर में ऑफिस से भी बदतर होती है! सच तो यह है की इन्स्टा पर इनकी चमकीली दिखने वाली लाइफ में ज्यादा योगदान फोटो फिल्टरों का होता है ,असल में जिंदगी आधार कार्ड के फोटो जैसी ही है सबकी ! क्योंकि घर का ‘बिग बॉस’ जिस प्रकार से इन्हें सुबह से शाम तक घर के कामों में पिदाता है, इन्हें रह-रह कर ऑफिस याद आता है, बॉस की डांट-फटकार याद आती है, ‘गो टू हेल’ वाली डांट, बॉस का बस नहीं चले नहीं तो रोज ही उन्हें ‘गो टू हेल’ के दंडस्वरूप घर में भेज दें। पिछले कोरोना काल में ‘वर्क फ्रॉम होम’ का कॉन्सेप्ट क्या आया, सभी को दो-दो बॉस को झेलना पड़ गया। आदमी ऑफिस जाता है किसलिए भला ! दो पल सुकून के बिताने को , थोड़ी सी कामचोरी के लिए, मटरगश्ती के लिए, बॉस की नज़रें बचाकर अपनी सहकर्मी से प्यार की दो पीगें बढ़ाने के लिए न ! लेकिन क्या करें , घर के घर के से माहौल ने ऑफिस के माहौल की चांदनी में ग्रहण लगा दिया।
खैर, मुख्य विषय पर आते हैं, बात ये है कि आज मेरा रविवार भी स्पेशल है। वो इसलिए है कि जब से लेखन का भूत सर चढ़ कर बोला है, हमें लग रहा है कि इन रचनाओं को अब और के सर माथे भी चढ़ाया जाए। घर में गृहस्वामिनी तो रचना सुनने से रही, एक दो बार कोशिश भी की, लेकिन ‘मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है’ के सिद्धांत पर, शॉपिंग का प्रॉमिस कराकर ही सुनवाई थी। समीक्षा तो श्रीमती जी रोज कर ही देती हैं, मेरी रचनाओं के कागजों पर पड़ी धूल को झाड़ पोंछ कर उन्हें पठनीय बना देती हैं। कबाड़ वाले की गली में हांक लगती है तो दर लगता है ,कही श्रीमती जी मेरे साहित्य संग्रह का अर्थीकरण नहीं कर दे.वैसे श्रीमती जी को भी मेरे लेखन रुपी कीड़े से शिकायत कुछ नहीं,अगर रचनाएँ कंप्यूटर तक ही सीमित रहें तो, लेकिन हुआ ये की लिखने के साथ पढ़ने का शौक भी चढ़ा है ,और हमने कुछ साहित्य बाजार से खरीद लिया ,एक बार मेरी अलमारी में बमुश्किल से श्रीमती जी द्वारा अतिक्रमण की हुई जगह को अनुनय विनय से प्राप्त कर के बुक्स रखी दी गयी थी , तब से श्रीमती जी की नजरों में मेरा ये शौक खटक रहा है। फिर दीवाली की सफाई पर भी मेरा काम सिर्फ अपनी इस निधि को झाड़ पोंछकर वापस व्यबस्थित करने का रहा , लेकिन श्रीमतीजी की कोप्भाजित नजरों से बचते हुए साथ में पंखे के जाले भी साफ करने पड़ते हैं। तो कुछ मेरे साहित्यिक सलाहकारों की सलाह पर रचनाओं को किसी मैगज़ीन में प्रकाशित करवाने का चस्का हमें भी लगा और इसी के तहत कुछ फोन नंबर और मेल आई डी कबाड़ लिए। एक रचना सही तरीके से साज संभार के बिलकुल ऐसे जैसे कि लड़की दिखाई की रस्म में लड़की को दिखाया जाता है उस तरह से संपादकों को दिखा भी दी है , बस संपादकों की हाँ का इंतजार कर रहा हूँ जैसे लड़के वालों की हाँ का इंतजार होता है। रचना भी मेरी शरमाई सी सकुचाई सी , अपने ख्वाबों में प्रकाशित होकर पाठकों से गलबहियाँ डाल कर आलिंगन होने के हसीं सपने संजोये है ,और इंतजार में पलक पांवडे बिछाए हुए है। रिज्यूम में अभी तक लिखने को कुछ नहीं है, बुक भी कोई पब्लिश नहीं हुई, किसी देश-विदेश की पत्रिका तो दूर, कोई लोकल अखबार ने भी हमारी रचना पर ध्यान देना उचित नहीं समझा, बस आशा लगाए बैठे हैं कि कोई एक दो रचना प्रकाशित हो जाए और हमारे रिज्यूम में भी कुछ लिखने को मिल जाए, लेखक के लिए ये कर्मचारी के अनुभव प्रमाण पत्र की तरह काम करता है, बड़े प्रकाशक तब तक घास नहीं डालेंगे जब तक आपकी रचना छोटे प्रकाशन में अपनी जगह नहीं बना लेगी।
तो बस फोन का इंतजार है। फोन की स्क्रीन को बार-बार ऑन करके देख रहे हैं गलती से कोई हाँ का मेल छूट न जाए, कोई फोन कॉल मिस न हो जाए। एक फोन आया भी है , थोड़ी सी उम्मीद जगी, वैसे तो अनजान नंबर उठाता नहीं लेकिन आज तो जितने भी अनजान नंबर से कॉल आ रही थी ,सभी संपादकों के ही लग रहे थे। एक फोन आया, हेलो कौन बोल रहे हैं? मैंने कहा, “डॉक्टर बोल रहा हूँ, “ बोला “दांत वाले डॉक्टर मुकेश ना?” मैंने कहा” नहीं जी बिना दांत वाला हूँ, मैं तो हड्डी वाला हूँ|” उसने फोन काट दिया। थोड़ी देर बाद एक फोन और आया, “हेलो डॉक्टर साहब बैठे हैं क्या? “मैंने झल्लाकर कहा जी हाँ अभी तक तो बैठे हैं, तुम कहो तो खड़े हो जाएं।
आशा टूट चुकी है। दिल बेचैन है। मेल में भी कोई संपादक जी का संदेश नहीं चमक रहा, इसी बहाने स्पैम फोल्डर के कंपनियों के प्रमोशन के सभी मेल खंगाल चुका हूँ कहीं से कोई छोटी सी किरण नजर आ जाए जो मेरी इन रचनाओं के अंधेरे टूटते ख्वाबों को रोशन कर जाए।
रचनाकार -डॉ मुकेश “असीमित’