आज भी
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सभ्यताओं का,अच्छी संस्कृति का प्रतीक है शहर.
किन्तु रह गया है बनकर बाजार.
दुकानदार पूछता है क्या खरीदोगे सर.
गाँव में लोग पूछते थे कैसे हो भाई जी.
गाँव श्रम का प्रतीक आज भी.
चिलचिलाती धूप आदमी का अंतर जलाती आज भी.
कभी दाने कभी पानी को तरसता आज भी.
ब्याज के चक्रव्यूह में फंसा सा आज भी.
गाँव के रस्ते सभी सुनसान,
लिए सम्मान का अरमान खड़ा है आज भी.
गाँव पर
ठप्पा असभ्य होने का लगा है आज भी.
दांव पर जीवन सदा था गाँव का, है आज भी.
पेट भर रोटी न मिलता आज भी.
हर प्रदूषित जल;मुंह बाये खड़ा है आज भी.
ढाँक ले तन जो तो रहता पेट भूखा आज भी.
अस्त व्यस्त है भाईचारा
मस्त किन्तु, वोट सारा.
जातियाँ अक्खड़पना पकड़े हुए से.
कबिलाई सोच में जकड़े हुए से.
परम्पराएँ लीक सी खींची हुई है आज भी.
आस्था सब अपढ़ सी सिंची हुई है आज भी.
उनका जीना मृत्यु से बेहतर नहीं है आज भी.
शाम उनका सुबह उनका हतप्रभ है आज भी.
हर घड़ी बरसात में चूता है छप्पर आज भी.
छीन ले जाता है सबकुछ कोई गब्बर आज भी.
पेट पीठों से लगे हैं हर बुढ़ापा आज भी.
पेट पीठों से निकाले रोते बच्चे आज भी.
लोक लज्जा है बचाए गाँव शायद आज भी.
वे बसे टोले में,
सिमटे हैं उसीमें आज भी.
वे विभाजित थे,है विभाजन आज भी.
जितनी खंडित एकता थी उतनी खंडित आज भी.
क्योंकि हीनत्व-ग्रन्थि से वे संचालित आज भी.
वे पलायन को विवश हैं भूख से डर आज भी.
बाढ़,सूखा से त्रसित थे त्रस्त हैं वे आज भी.
क्या अमीरी है?गरीबों की तरह वे सोचते हैं आज भी.
क्या फकीरी है! गरीबों की तरह वे भोगते हैं आज भी.
बहुत कुछ बदला जहाँ में कुछ न उनका आज भी.
जन्म के ऋण से न उबरा जन्म उनका आज भी.
और शिक्षा तब कठिन था है कठिन वह आज भी.
पुस्तकों बिन पढ़ते बच्चे, वे कठिन दिन आज भी.
है बहुत लम्बी कहानी थक गये हैं शब्द सब.
फिर कभी इनकी कहानी,कहने आयें शब्द सब.
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