आज भी अपमानित होती द्रौपदी।
आज भी अपमानित होती द्रौपदी।
थी सर्वगुणसम्पन्न पति पाने की आशा।
बनी वो पँचपतिव्रता की परिभाषा।
बनी युग-परिवर्तन की भाषा।
उसकी चाह को समझा कौन?
उसकी सत्य राह को समझा कौन?
द्रौपदी ने तो अपना धर्म निभाया पर इसे समझा कौन?
हर सत्य कर्म निभाया पर इसे समझा कौन?
भरी सभा में बालों से घसीटकर लाया उसके मान को।
चुपचाप देखा उस अबला के होते अपमान को।
सबके समक्ष वस्त्र खींचकर किया अपमान नारी का।
गूंगे-बहरे होकर देखा अपमान नारी का।
इस अधर्म के विरुद्ध वरिष्ठ बोला कौन?
था सभा समाज मूक मौन।
द्रौपदी की अंतर्वेदना को समझा मनुष्य कौन…?
था सभा समाज मूक और मौन।
युग बदला, नहीं बदली नारी अपमान की रीत।
आज भी नहीं,नारी सम्मान की प्रीत।
प्रगति की राह में बँटती नारी।
प्रेम की चाह में घुटती नारी।
इस कुप्रथा को तोड़ेगा कौन?
नर-नारी है समान,ये समझेगा कौन?
नहीं समझता कोई उसकी कष्ट भरी राह को।
अंदर हर पल पलती असहनीय व्यथा…,
और उसकी आह को।
इस पीड़ा को समझ रहा है कौन?
है सारा समाज मूक और मौन।
आज भी इस ह्र्दयहीन समाज में हर पल,सिसकती नारी।
घर और समाज के तानों से बनती दुखियारी।
अपमानित करता समाज, ह्रदय पर चलाता आरी।
उस युग से इस युग तक नहीं पूर्ण सुधरी,नारी की गति।
कल भी सहा कष्ट,आज भी कष्ट में द्रौपदी सती।
आखिर कब होगी पावन समाज की मति?
प्रिया प्रिंसेस पवाँर
स्वरचित,मौलिक
नियर द्वारका मोड़,नई दिल्ली-78