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31 Jan 2021 · 1 min read

आज बनकर आये है फ़िर से

आज बनकर आये है वो कत्ल का फिर से सामान
रक्त से तर ब तर हो गया देख उसका तीर कमान

झूठी मेरी बात लगे तो मुआफ़ कर देना यारो जरा
उसकी तारीफ़ में शब्द निःशब्द करती मेरी जुबान

वो हंसी नग्मा बनकर घूमती दिल की वादियो में
दिल के सूने साज छेड़ गई उसकी वो सुरीली तान

रोज आती है अब लबों पर बनकर मेरे वो गजल
मेरे कदमगाह वो बने है सफर में उसके ही निशान

ढाई अक्षर प्रेम के पढ़ डाले मैंने उसके संग यारों
प्यार का एक परिंदा करा गया था मेरी भी पहचान

मेरे और उसके बीच में बस धर्म की एक दीवार थी
पर मैं सरहदें नहीं पहचानता परिंदा था मैं नादान

रखा जमाने वाले ने मेरी हथेली पे सूरज एक दिन
हादसा हो गया फिर अशोक की निकल गई जान

अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से

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